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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

निष्पक्ष नहीं हूँ। मैं तो पुराने कार्यक्रमका ही कट्टर हामी हूँ । देशके और अपने सद्भाग्यसे श्रीमती नायडूके विचार इतने कट्टर नहीं हैं। इससे भी बढ़कर बात यह है कि उन्हें कोई किसी कार्यक्रमसे उस तरह एकात्म नहीं कह सकता जिस तरह मुझे अपने कार्यक्रमके विषयमें कहा जा सकता है। इसलिए मैं सभी प्रान्तीय कमेटियोंसे आदरपूर्वक अनुरोध करता हूँ कि वे मेरा नाम वापस ले लें और सरोजिनी देवीको अपना सभापति चुनें। हाँ, यदि पूर्वोक्त कारणोंसे वे किसी मुसलमानको सभापति बनाना चाहते हों और डाक्टर अन्सारीको यह पद देना चाहते हों तो बात अलग है ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १७-७-१९२४

२०९. वर्णाश्रम या वर्णसंकर ?

एक विदुषी लिखती हैं :

एक बहनने सफर के दौरान वारतेजकी राजपूत परिषद् के लिए भेजे आपके सन्देशकी[१] ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया। उसे पढ़कर, मेरे दिलका वह विरोध उमड़ आया जो कि बहुत दिनोंसे मानस में दबा पड़ा था। वह विरोध अपनी कहानी कहने के लिए आतुर हो उठा। जो मनन करता है उसे मनुष्य कहते हैं। इसलिए मुझे आशा है कि आप अपने साथी विचारकके विचारोंके प्रति सहिष्णुता दिखायेंगे और घोर मतभेद होनेपर भी उन्हें धैर्य के साथ सुनेंगे। १९२० में साबरमती आश्रम और उसकी बुनाईशाला देखकर ये विचार मेरे दिलमें पहली बार उठे थे। फिर वे शान्त हो गये; किन्तु बीच-बीचमें उठते ही रहे। कुछ दिनोंसे तो उन्होंने मेरे दिल में घर बना लिया है और अब राजपूत परिषद्वाला आपका सन्देश उनके उब्रेकका आखिरी निमित्त हुआ ।

जहाँ स्टेशनपर एक सिरेसे दूसरे सिरे तक फौजी ढंगकी पोशाक पहने हुए और तलवारें लटकाये हुए स्वयंसेवक पंक्तिबद्ध खड़े हुए थे, जहाँ सारा वायुमण्डल क्षत्रिय जातिकी वीरता और शौर्य के संस्मरणोंसे गूंज रहा था, वहाँ तलवारकी झंकारका स्थान चरखेकी गुन-गुनको देनेकी, सभी जातियों द्वारा आपको अपनी ही जातिका धर्म अपनानेकी आपकी सलाह क्या ईसाई पादरियोंकी सलाहके समान बिलकुल बेतुकी नहीं थी ? क्या आपको प्राचीन ऋषियोंकी तरह ब्राह्मणको सच्चा ब्राह्मण, क्षत्रियको आदर्श क्षत्रिय, वैश्यको एक आदर्श वैश्य बनने की सलाह नहीं देनी चाहिए ? ब्राह्मणका चिह्न पोथी या कलम, क्षत्रियका तलवार और वैश्यका चरखा या हल है । आप शौकसे अपनेको

  1. १. देखिए “सन्देश : सौराष्ट्र राजपूत परिषद्को”, ११-६-१९२४ ।