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वर्णाश्रम या वर्णसंकर ?

जुलाहा या किसान कहलवाने में अपना गौरव मानें -- ऐसा करना अपनी जातिकी स्वाभाविक वृत्ति या वैश्य धर्मके प्रति आपकी वफादारी ही होगी । पर आप जैसे वर्णाश्रमके सिद्धान्तोंको माननेवाले हिन्दूका ब्राह्मण और क्षत्रियोंसे उनका स्वाभाविक जाति-धर्म छुड़ाकर वैश्य धर्म अंगीकार करानेके लिए इतना आग्रह करना और इस प्रकार उनके पतनमें सहायक बनना कहाँतक ठीक है ? क्या आज भी क्षत्रिय वैश्य धर्मको स्वीकार किये बिना गरीबोंकी रक्षा और सेवा नहीं कर सकते ?

भारतवर्षके महापुरुषोंने तो हर व्यक्तिको स्वभावके अनुसार स्वधर्मका ही उपदेश हमेशा किया है। आप ही पहले-पहल इन तमाम धर्मोको ताक पर रखकर सारे राष्ट्रको वैश्य-वृत्ति अंगीकार करनेका उपदेश दे रहे हैं । वैश्य-धर्मका उद्धार आप शौकसे कीजिए, पर दया करके ब्राह्मणों और क्षत्रियोंको पीछे न घसीटिये । आप अपनी जातिको शौकसे आध्यात्मिक बनाइए; परन्तु दूसरी जातिवालोंको अपने व्यक्तित्वके जादूसे मुग्ध करके जुलाहे और धुनिये बनाकर उन्हें भौतिकतावादी क्यों बनाये डाल रहे हैं ? मेरी राय में तो आपके आश्रमके विनोबा और बालकोबा[१] आपके बनाये आध्यात्मिक जुलाहोंकी अपेक्षा यदि शुद्ध ब्राह्मण रहे होते और उन्होंने अपनी मेधाका पूर्ण विकास किया होता तो उनके द्वारा राष्ट्रकी कहीं अधिक सेवा होती ।

यह पत्र मैंने पूरा नहीं दिया है -- उसका सार-भाग जरूर दे दिया है । जो हिस्सा नहीं दिया गया है वह पूर्वोक्त अंशका भाष्य-मात्र है । पत्र-लेखिकाका जन्म हिन्दू-कुलमें हुआ है और वे उसका दावा भी करती हैं । मेरा भी यही दावा है । चरखेको मैंने भिन्न-भिन्न धार्मिक मतोंसे भी ऊँचा माना है । इसलिए मेरा यह खयाल था कि उसके बारेमें सुसंस्कृत मित्रोंको गलतफहमी नहीं होगी। पर ऐसा नहीं हुआ है । लेखिका कहती हैं कि मैं अकेली ही चरखेके खिलाफ नहीं हूँ । इसलिए मेरे लिए उचित है कि धीरजके साथ मैं उनकी दलीलोंपर विचार करूँ । १९०४ से मैंने पत्र-सम्पादन शुरू किया है। तबसे अबतक के अपने अनुभवसे मैंने यह देखा है कि सम्पादकों के पास आनेवाली अधिकांश टीका-टिप्पणियोंका आधार अपने प्रतिपक्षीके वक्तव्यको पूरी तौरपर समझ न पाना ही होता है । प्रस्तुत विषयमें यदि लेखिका इस एक बात को अपने ध्यानमें रखती कि चरखेका पैगाम मैंने केवल हिन्दुओंको नहीं दिया है, बल्कि बिना किसी अपवादके तमाम भारतवासियोंको दिया है -- फिर वे चाहे स्त्री हों या पुरुष और चाहे मुसलमान हों, पारसी हों, ईसाई हों, यहूदी हों, सिख हों या और कोई हों -- वे सिर्फ अपनेको हिन्दुस्तानी मानते हों -- तो वे इस तरह न लिखतीं । उस अवस्थामें वे इस अनुमानपर पहुँचतीं कि मैंने भारत के लोगोंके सामने एक ऐसी चीज पेश की है कि जो उसके विविध धर्मोके विरुद्ध तो पड़ती ही नहीं है बल्कि जहाँतक उसका अमल किया गया है वहाँतक उससे उनके धर्मका और

  1. १. विनोबाके अनुज ।