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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हिन्दू धर्मवालोंके तो वर्ण या जातिका -- तेज और गौरव ही बढ़ा है । इसलिए मेरा दावा है कि मेरा विधान वर्ण संकरता फैलानेवाला नहीं, बल्कि वर्ण-शोधन करनेवाला है । मैं किसीसे यह नहीं कहता कि आप अपने पुश्तैनी धर्म-कर्मको छोड़ दीजिए; मैं हर मजहबवालोंसे यह जरूर कहता हूँ कि अपने स्वाभाविक कर्मके साथ-साथ चरखेको भी शामिल कर लीजिए । काठियावाड़के राजपूत इस बातको जानते थे । उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप यह चाहते हैं कि हम अपनी तलवारें छोड़ दें ? मैंने कहा, 'नहीं, मैं यह नहीं चाहता। जबतक आप लोग तलवारके कायल हैं तबतक मैं यही चाहता हूँ कि आप अपने पास ऐसी भरोसे लायक तलवारें रखें जो कभी दगा न दें ।' मैंने उनसे यह भी कहा कि मेरे तई आदर्श राजपूत तो वह है जो तलवारके बिना ही अपनी रक्षा करे और जो बिना दूसरेपर प्रहार किये अपनी जगहपर खड़े-खड़े प्राण त्याग दे । तलवार तो हमसे कोई छीन सकता है पर बिना वार किये प्राण-विसर्जन करनेकी वीरता हमसे कोई नहीं छीन सकता । पर यह तो दूसरी ही बात हुई। मेरे प्रयोजनकी पूर्ति के लिए तो इतना ही दिखलाना काफी है कि राजपूतोंको निर्बलोंकी रक्षा करने के अपने कर्त्तव्यको छोड़नेकी जरूरत मैंने नहीं बताई और न मैं यही चाहता हूँ कि ब्राह्मण लोग अपने अध्यापनकर्मको त्याग दें । मैंने तो सिर्फ उनसे इतना ही कहा है कि यदि वे त्यागमूलक सूत्र-विद्याको अपनायेंगे तो अधिक योग्य अध्यापक बन सकेंगे। विनोबा और बालकोबाने सूतकार, जुलाहा और भंगी बनकर, अपनेको योग्यतर ब्राह्मण बना लिया है । उनका ज्ञान अब अधिक परिपक्व हो गया है । ब्राह्मण वह है जो ब्रह्मको जानता हो । मेरे ये दोनों साथी आज ईश्वरके नजदीक पहुँच गये हैं; क्योंकि वे भारतके लाखों क्षुधा-पीड़ित लोगोंकी हालतसे दुःखी होते हैं और उन्होंने चरखेके द्वारा उनके साथ अपने आपको एकात्म कर दिया है । ईश्वरीय ज्ञान पुस्तकोंसे नहीं मिल सकता । उसे तो हम खुद अपने अन्दर ही अनुभव कर सकते हैं । पुस्तकें बहुत हुआ तो एक हदतक सहायता दे सकती हैं -- अकसर तो वे बाधक ही होती हैं। एक विद्वान ब्राह्मणको एक ईश्वर-परायण कसाईसे ब्रह्मज्ञान सीखना पड़ा था ।

अच्छा तो यह वर्णाश्रम क्या चीज है ? ये ऐसे विभाग नहीं हैं जिनका एक-दूसरेसे कुछ भी ताल्लुक न हो । मेरी रायमें तो यह एक वैज्ञानिक तथ्यकी स्वीकृति ही है -- फिर चाहे हम उसे जानते हों या न जानते हों । ब्राह्मणका कर्म एकमात्र अध्यापन नहीं, वह उसका प्रधान कर्म है । पर जो ब्राह्मण शरीर-यज्ञ (शारीरिक श्रम) से इनकार करता है, उसे लोग मूढ़ कहेंगे । हमारे प्राचीन अरण्यवासी ऋषि लकड़ी काटते थे, पशु चराते थे और युद्ध भी करते थे । पर उनके जीवनका प्रधान कार्य था -- सत्यकी शोध । इसी प्रकार विद्याविहीन राजपूत किसी कामका नहीं माना जाता था, फिर शस्त्र-विद्यामें चाहे वह कितना ही निपुण क्यों न हो। और वैश्य अपने आत्मविकास के लिए आवश्यक अध्यात्म ज्ञानके बिना सचमुच उस राक्षसके समान होगा जो समाजके मर्म-स्थलको चूसता रहता है —— जैसे कि आजके कई वैश्य बन चुके हैं, फिर भले वे पूर्वके हों या पश्चिमके । 'गीता' के अनुसार ऐसे लोग सिर्फ अपने ही लिए जीनेवाले पापात्मा होते हैं। चरखे दाखिल करनेका उद्देश्य