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२१०. खद्दर क्या कर सकता है ?

आन्ध्र जिलेसे एक पत्रलेखक लिखते हैं:[१]

मैंने १९२१ में मद्रास के प्रेसिडेंसी कालेजसे पढ़ना छोड़ा था। मेरे चाचा-ने मई १९२१ में मुझे खद्दरका धन्धा चलानेके लिए बीस चरखे बनाने लायक लकड़ी, कुछ रुई और बीस रुपये दिये। एक बढ़ईकी सहायता से मैंने उस लकड़ो से चरखे बनवाये और उनमें से शायद चार पंचम वर्णके लोगोंको दिये । मैंने उन पाँच चरखोंसे काम शुरू किया था; और अब मेरे निरीक्षणमें लगभग चार सौ चरखे चल रहे हैं।. . . खद्दर के धन्धे में पिछले तीन वर्ष तक संघर्ष करनेके बाद मुझे श्री पोनियाके साथ -- जो कुर्नूल जिलेके नागालापुरम् गाँवमें यही धन्धा कर रहे हैं -- इसकी एक दूसरी योजना बनानेकी आवश्यकता महसूस हुई, जिससे कतैये और बुनकर हमारे-जैसे सहायकों (खद्दर कार्यकर्त्ताओं) के न मिलनेपर नुकसान न उठायें। . . . श्री पोनिया, नागालापुरम् में और मैं यहाँ दो महीने से इस तरीकेको अमल में लानेका प्रयत्न कर रहे हैं और हम लगभग सफल भी हो गये हैं। इससे लोगोंको और हमें बड़ी राहत मिली है।

लेखकने अपने रोचक कार्यका और भी विवरण दिया है। मुझे उसमें जानेकी आवश्यकता नहीं है । किन्तु उस विवरणमें यह सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त सामग्री है कि खद्दर राष्ट्रके आर्थिक जीवनमें धीरे-धीरे चुपचाप कैसी क्रान्ति ला रहा है।

हम यहाँ बीजापुर जिलेके एक विवरणमें से कुछ उद्धरण देते हैं ।[२]

ये उदाहरण पैसे लेकर काम करनेवाले लोगों के हैं। जब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके प्रस्ताव के अनुसार कांग्रेसके चुने हुए प्रतिनिधि और अन्य लोग कताईको राष्ट्रीय कर्त्तव्यका अंग समझकर कातने लगेंगे, तब शहरोंमें भी उदासीनता नहीं रहेगी । तब शहर भी जैसे होने चाहिए -- ग्राम्य जीवनका ही विस्तार बन जायेंगे और ऐसे नहीं रहेंगे, जैसे आज हैं। आज तो वे हमारे जीवनसे बिलकुल ही अलग विजातीय विस्तार-जैसे लगते हैं । वे ग्रामवासियोंके स्वस्थ जीवनको चूसकर उसे मटियामेट किये जा रहे हैं।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, १७-७-१९२४
  1. १. अंशत: उद्धृत ।
  2. २. नहीं दिये जा रहे हैं। विवरणमें बीजापुर जिलेके कई गांवोंमें चरखा कताई और बुनाईके कार्यका तथा उसके जरिये कई ग्रामनिवासी स्त्री-पुरुषों द्वारा अपनी आजीविका कमानेका विस्तृत उल्लेख है ।