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विदग्ध अथवा अर्धदग्ध

जब गोरेने स्त्रीको गालियां दी तब गणपत देखता कैसे रहा ? यदि उसे इससे दुःख हुआ था तो उसके पास दो-तीन रास्ते थे। वह अहिंसाका प्रयोग करके नम्रभावसे उस गोरेको समझाता और यदि ऐसा करनेपर उसको मार भी खानी पड़ती तो खा लेता और इस प्रकार उस बहनको गालियाँ खानेसे बचाता; अथवा यदि वह 'शठम् प्रति शाठ्यम्' के न्यायको मानता था तो वह उस झगड़ेको अपना बनाकर उस गोरेसे भिड़ सकता था । यदि वह सहयोगी है तो उसके लिए तीसरा रास्ता यह था कि वह उस स्त्रीको थानेमें ले जाता और वहाँ उसकी शिकायत दर्ज कराता और यदि उसे इससे न्याय न मिलता तो वह स्वयं असहयोगी बन जाता । हम इसपर चाहे जिस तरह विचार करें, उसे घरसे भागने का मार्ग तो अख्तियार ही नहीं करना था । यह उपाय [ मुक्तिदाता होने के बजाय ] बन्धनकारी सिद्ध हो सकता है। विद्यार्थी गणपतने लिखा है, 'अब में जीवनका मर्म समझ गया हूँ' । वह क्या समझ गया है सो तो भगवान जाने। वह घरसे भागकर क्या साधना करेगा ? जितना कुछ वह करना चाहता था, घर रहते हुए कर सकता था । कायरतापूर्वक घर-से भागकर ज्ञानोपलब्धि नहीं होती । साहस भी नहीं आता । सब लोग बद्ध नहीं हो सकते। सरस्वतीचन्द्र[१] तो गोवर्धनभाईकी[२] कल्पनामें बसता था । विद्यार्थी गणपत तो सरस्वतीचन्द्र से भी आगे बढ़नेकी आशा रखता है। गोवर्धनभाईने सरस्वतीचन्द्रको तो कोल्हू के बैलकी भाँति एक ही जगह घुमाया-फिराया है। वह 'नवीन' तो हुआ ही नहीं । वह नवीन अनुभव प्राप्त करनेके बाद भी कुमुदको[३] छोड़ कुसुममें[४] रम गया तथा अन्तमें उससे अपनी पूजा करवाई । 'सरस्वतीचन्द्र' से तो शिक्षा यह लेनी है कि हम कर्त्तव्य पथसे कदापि विचलित न हों। जिस दुःखका निवारण नहीं हो सकता हम उसे साक्षी बनकर सहन करें और उसके निवारणके उपायोंकी खोज करें। दुःखोंके निवारणके उपाय तो दुःखोंको सहनेसे ही मिलेंगे, दुःखोंसे दूर भागनेसे नहीं ।

यदि विद्यार्थी गणपत अबतक जंगलमें न चला गया हो और छिपा रहकर भी 'नवजीवन' पढ़ता हो और यदि उसे यह अंक दिखाई दे जाये तो वह मेरे-जैसे अनुभवीकी विनतीपर ध्यान देकर वापिस आ जाये । वह अपना अध्ययन जारी रखे, स्वास्थ्य अच्छा न हो तो कोई बात नहीं -- ब्रह्मचारी अवश्य रहे, ईश्वर भक्त जरूर बने, जीवनका रहस्य सेवाभाव है यह सीखे और यह भी जान ले कि सेवा घर छोड़कर भागनेसे नहीं होती ।

अरण्यवासका मार्ग सही मार्ग नहीं है, में यह नहीं कहना चाहता । वहाँ जाकर तो बहुत-कुछ सीखा जाता है, लेकिन इसके लिए मनुष्यको पहले अधिकारी बनना चाहिए। हम सब बुद्ध बनने का साहस न करें। हम तो सुदामा बनें। अर्जुनको युद्ध-भूमि छोड़कर भागनेसे रोकनेवाले कृष्ण मूर्ख नहीं थे । रामने पिताकी आज्ञाका पालन किया; परन्तु भरतको अयोध्यामें बाँध दिया तथा स्वयं जंगलमें जाकर मंगल

  1. १. सरस्वतीचन्द्र नामक गुजराती उपन्यासका नायक ।
  2. २. गोवर्धन त्रिपाठी, उक्त उपन्यासके लेखक ।
  3. ३ व
  4. ४. उक्त उपन्यास के स्त्री-पात्र ।