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प्रश्नोत्तरी

'समरथको नहि दोष गुसांई' नामक लेखमें[१] आपने लिखा है कि सर शंकरन् नायर के साथ जो अन्याय हुआ है उससे इस राजतन्त्रको बुराई अधिक स्पष्ट हो गई है । आप दूसरी ओर अ० भा० कां० क० के सदस्योंको लिखते[२] हैं कि " यदि हम अदालतों और पाठशालाओंकी तरफ खिंचाव होते हुए भी उनका विरोध करते हैं तो फिर हमारा विरोध पद्धतिसे नहीं, व्यक्तियोंसे हो जाता है . . . मेरा स्वराज्य तो अपनी संस्कृतिके प्राणको अक्षुण्ण रखने में है ।"

इन दोनों अंशोंपर विचार करें तो जान पड़ता है कि पहले अंशमें इशारा 'गोरोंके द्वारा चलाई जानेवाली शासन-पद्धति' की ओर है, किन्तु दूसरेमें संस्कृति-पर कटाक्ष है ।

नहीं, ऐसा हरगिज नहीं है । यदि सर शंकरन्‌का न्यायाधीश कोई काला आदमी होता तो भी ऐसा ही अन्याय करता । वह न्यायाधीश वर्तमान ब्रिटिश राजनीतिका पुर्जा होने के कारण दूसरा निर्णय नहीं ले सका । हिन्दुस्तानमें रहनेवाले हम लोग जानते हैं कि वर्तमान राजतन्त्रमें काम करनेवाले हिन्दुस्तानी न्यायाधीशोंसे नाजुक मौकोंपर न्यायकी आशा नहीं रखी जा सकती। यह उनका नहीं, प्रणालीका दोष है। मामूली आदमी अपने वातावरणसे ऊँचा नहीं उठ सकता; जो ऊँचा उठ सकता है वह ऐसी किसी त्याज्य पद्धतिमें एक क्षण भी नहीं ठहर सकता । असहयोग हमें इसी तत्त्वकी शिक्षा देता है । मैंने तो कितनी ही बार कहा है कि यदि वर्तमान प्रणाली कायम रहे और उसमें तमाम अधिकारी हिन्दुस्तानी हों तो भी वह मेरे लिए त्याज्य है ।

मैं समझता हूँ कि हमने असहयोगकी योजना अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए नहीं बनाई थी, बल्कि अपनी प्रतिष्ठाको रक्षाके लिए बनाई थी -- फिर संस्कृतिकी रक्षा उसका अप्रत्यक्ष, किन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण परिणाम भले ही हो ।

हमारी प्रतिष्ठापर जो हमला होता था वह प्रत्यक्ष था । इसलिए उसकी बात करना अधिक प्रभावकारी था । परन्तु हमारी प्रतिष्ठा हमारी संस्कृतिमें छिपी हुई थी । अब जब कि प्रतिष्ठाकी रक्षा न होनेपर भी सरकारी अदालतों और पाठशालाओं आदि-का मोह बढ़ने का भय फिर दिखाई देता है, तब हम उसके द्वारा संस्कृतिपर जो प्रच्छन्न आक्रमण हो रहा है उसे स्पष्ट रूपसे सामने रखते हैं । इस तरहकी दलीलें सोच-सोचकर नहीं दी जातीं । वे परिस्थितिसे उत्पन्न होती हैं। अगर हम गहराईसे विचार करें तो प्रतिष्ठा, संस्कृति, पद्धति आदि शब्दोंका परस्पर सम्बन्ध दिखाई दे सकता है और समझा जा सकता है कि उन सबका मूल एक ही है ।

सरकारी अदालतों में किसी विघातक तत्त्वके होनेपर मुझे यकीन नहीं हुआ है; फिर भी मैं उनमें अपने पड़ौसीके विरुद्ध अभियोग नहीं ले जाऊँगा, क्योंकि वे उस विदेशी सरकारकी अदालतें हैं जो हमपर जुल्म करती हैं। इसी प्रकार मौजूदा

  1. १. देखिए "टिप्पणियाँ", १२-६-१९२४ ।
  2. २. देखिए “ खुला पत्र : कांग्रेस कमेटीके सदस्योंके नाम ", २६-६-१९२४ ।