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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वे जैसे सब कुछ जाननेकी इच्छा रखते हैं वैसे ही सब कुछ करनेकी इच्छा भी रखते हैं। प्रेम-दीवाने होने के कारण एक क्षणके लिए भी उन्हें कोई काम अपने सामर्थ्य से बाहर नहीं जान पड़ता। क्या प्रेमकी कोई सीमा होती है ? प्रेमसे क्या नहीं किया जा सकता ? इसीलिए वे स्वयं अपनी मर्यादा आँकने के बजाय यह कार्य ईश्वरपर छोड़ देते हैं । यह गुण भी है और अवगुण भी । उनके इस पत्र से मैं देख पा रहा हूँ कि उनपर इन दोनोंका प्रभाव है ।

मैं तो उनके इस प्रेमसे सराबोर पत्रका स्वागत ही करता हूँ । मेरे लिए यह पत्र और ऐसे ही अन्य पत्र चौकीदार हैं। मैं उनसे धीरज सीखता हूँ और उनसे मुझे अपनी मर्यादाका भान होता है ।

भाई इन्दुलालने जिन त्रुटियोंकी ओर संकेत किया है और उन्होंने जो दलीलें रखी हैं, उनमें से मैंने एकपर भी विचार न किया हो सो बात नहीं है । मैं उनपर विचार करनेके बावजूद जिस निष्कर्षपर पहुँचा हूँ, उसे मैंने विनयपूर्वक लोगोंके सम्मुख रख दिया है। मैं उसमें उठाई गई अनेक शंकाओंका समाधान तो इन पृष्ठों में कर चुका हूँ और समय-समयपर करता भी रहूँगा तथापि मैं जिन शंकाओंका समाधान नहीं कर सकता उनके सम्बन्धमें केवल इतना ही कहूँगा कि लोग इन शेष प्रश्नोंके उत्तर मेरे आचरणमें से ढूंढनेका प्रयत्न करें।

हास्यरस

एक सज्जन लिखते हैं :[१]

धारवाड़ के सज्जन[२] अपने कपड़ोंका हिसाब देना चाहेंगे तो देंगे; लेकिन उक्त पत्र-लेखककी समस्याका कुछ समाधान तो मैं ही कर दूँ । निर्दोष प्रश्नोंके उत्तर निर्दोष ही होने चाहिए। इन सज्जनने निर्दोष विनोद किया है, इसलिए मुझे उनके इस विनोदमें शामिल होनेकी इच्छा होती है। उक्त धारवाड़ी भाईके स्थानपर मैं ही इस भाईको कपड़े देनेका ठेका लेता हूँ । इसमें हमें केवल थोड़ा-सा परिवर्तन करना होगा । कोई भी १,००० रुपएके मूल्यके कपड़ोंका ठेका १५ रुपये में नहीं ले सकता । हम धारवाड़ी भाईसे पूछकर जान सकते हैं कि वे कितने कपड़ोंसे गुजारा कर सकेंगे। अपने कपड़ोंपर वे वर्षभरमें १५ रुपये खर्च करते हैं । सम्भवतः मैं तो ३ रुपये भी खर्च नहीं करता। मेरी लंगोटी इससे अधिककी नहीं आती होगी । तौलिया तो मैं जेलमें एक ही व्यवहार में लाता था । वह मेरे पास एक वर्षसे भी ज्यादा चला था। मुझे नाकके लिए अलग रूमाल रखनेकी आदत है । वह मैं लंगोटीकी कतरनमें से बना लेता था । वैसे रूमाल तो मेरे पास अब भी बहुत पड़े हैं। लेकिन मैं इन सज्जनसे लंगोटीसे सन्तोष मान लेनेकी बात नहीं कहता । लेकिन उनको वास्कट, कोट और भारी धोती जोड़ेकी जरूरत तो नहीं है । चद्दर पहनने के कपड़ोंमें नहीं गिनी जाती, इसलिए उक्त भाईकी गिनतीके मुताबिक ४ रुपयेका कुरता, ३ रुपयेकी

  1. १. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है।
  2. २. इन्होंने जून, १९२४ में गांधीजीको लिखा था : मेरे खदरके बने कपड़ोंका वार्षिक खर्च १५ रुपये आता है, किन्तु मैं जब विदेशी कपड़े पहनता था तब ५० रुपये आता था ।