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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आज जहाँ बहुत से लोग शंकित-हृदय हैं, जहाँ लोगोंमें परस्पर द्वेष है, जहाँ आलोचना-विषयक असहिष्णुता है और जहाँ आक्षेपोंकी कोई सीमा नहीं है वहाँ मौन रहना ही सर्वोत्तम मार्ग है। लेकिन मौनके साथ-साथ कोई काम भी चाहिए और वह काम है चरखा चलाना ।

लेकिन अन्य लोग कातेंगे ही नहीं, ऐसी शंका निर्मूल है । जैसे यह प्रश्न नहीं उठता कि अन्यलोग नहीं खायेंगे वैसे ही यह प्रश्न भी नहीं उठता। यदि मुझे विश्वास है तो मुझे दूसरोंकी चिन्ता क्यों होनी चाहिए ? दूसरे नहीं कातेंगे तो उनके बजाय मुझे और भी ज्यादा कातनेका आग्रह होना चाहिए। यदि ऐसा किया जाये तो इसकी छूत दूसरोंको आसानीसे लगेगी ।

अतिशयता

एक भाई लिखते हैं :[१]

यह दलील भ्रामक है, इसलिए त्याज्य है । मनुष्य परावलम्बी होकर जन्म लेता है । यदि यह न होता तो उसके अभिमानकी कोई सीमा नहीं रहती । संन्यास परावलम्बनकी पराकाष्ठा है, क्योंकि उस हालतमें उसे लोग जो कुछ दें उसीमें निर्वाह करना होता है, किन्तु उसके द्वारा मनुष्य आत्माकी स्वतन्त्रताको प्राप्त करता और ब्रह्मसे तादात्म्य स्थापित करता है । दूसरोंको कष्ट न देनेके लिए हम सब काम स्वयं कर लें; लेकिन स्वावलम्बनका दावा सिद्ध करनेके निमित्त जो व्यक्ति सब कुछ अपने हाथों करनेका प्रयास करता है वह अन्ततः स्वेच्छाचारी बन जाता है । हम अन्न और वस्त्रके मामलेमें समस्त समाजको स्वावलम्बी बनाना चाहते हैं । वस्त्रके मामलेमें समाज परावलम्बी बन गया है और अब वह स्वावलम्बी बन सकता है या नहीं, उसे इसमें शंका हो गई है । इसीलिए मैं प्रत्येक स्त्री और पुरुषको इस विषयमें स्वावलम्बी बन जानेकी सलाह देता हूँ । व्यक्तियोंके स्वावलम्बी बननेपर ही समाज-का स्वावलम्बी बनना सम्भव है। इसके सिवा अन्य क्रियाओंके सम्बन्धमें स्वावलम्बी बननेका प्रयास वस्त्र-विषयक महान व्यापक और आवश्यक प्रयासमें बाधक होगा । कल्पना कीजिये कि सब लोग अपने लिए साबुन, पेंसिल, कलम, घड़ी और अन्य वस्तुएँ बनाने लग जायें और उसके साथ-साथ वस्त्र भी तैयार करें तो ऐसे एक दो मनुष्य भले ही हो जायें, लेकिन इससे भारतका दारिद्र्य दूर नहीं होगा ।

हमें भारतका दारिद्र्य दूर करनेके लिए इससे विपरीत मार्गपर चलना चाहिए । तात्पर्य यह है कि सभी लोग अन्य सब अनावश्यक प्रवृत्तियोंको छोड़कर भारतको वस्त्रके सम्बन्धमें स्वावलम्बी बनानेका प्रयत्न करें और उस प्रयत्नका स्वरूप यह है कि सभी सूत कातें। हमारी प्रवृत्तियोंमें वर्षोंसे व्यभिचार पैठ गया है । कोई कहता है, मैं साबुनका कारखाना स्थापित करके देशको गुलामीसे छुड़ाऊँगा । कोई कहता है, मैं इसके लिए ताला बनानेका कारखाना खोलूँगा । कोई चमड़ेका और कोई बाँस-

  1. १. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। इसमें लेखकने लिखा था, आप चाहते हैं कि सभी अपने लिए स्वयं खाना बनायें और सूत कातें। लेकिन क्या आप हर कार्य में हर व्यक्तिको आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं ।