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नये प्रकारका चरखा

की चटाइयाँ बनानेका कारखाना खोलनेकी बातें करता है । इसीका नाम है समाज-का व्यभिचार । जब हमारी बुद्धि एक कार्यक्रमपर स्थिर हो जायेगी और हम सब उसपर अमल करनेके लिए एकसूत्र हो जायेंगे, हम तभी स्वराज्य प्राप्त कर लेंगे । मुझे ऐसा कार्यक्रम चरखा चलाना ही दिखाई देता है और इसीलिए मैं उसकी रट लगाये रहता हूँ । अभीतक तो मुझे कोई भी मनुष्य इसके समान कोई दूसरा कार्यक्रम नहीं बता सका है।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २०-७-१९२४

२१७. बुनाईकी कमाई

एक भाईने बुनाईके सम्बन्धमें अपना अनुभव और उसकी तफसील लिखकर भेजी है । वह ब्यौरा छोड़कर उनका अनुभव मात्र दिया जा रहा है :[१]

सभी लोगोंको ऐसे अवसर और अनुभव प्राप्त नहीं हो पाते, यह तो स्पष्ट ही है । फिर भी इस अनुभव और जिन अन्य अनुभवोंको में पहले ही प्रकाशित कर चुका हूँ, उनसे यह प्रकट हो जाता है कि कोई भी व्यक्ति लगन और चतुराईसे बुनाई करे तो गुजारेके लायक पैसा निकल आता है।

यही भाई आगे लिखते हैं:[२]

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २०-७-१९२४

२१८. नये प्रकारका चरखा

बम्बईके समाचारपत्रोंमें नये प्रकारके चरखेके सम्बन्धमें एक टिप्पणी देखने में आई है । इस सम्बन्धमें खादी बोर्डसे जाँच करनेका अनुरोध किया गया है । आज-तकका अनुभव तो यह है कि अभीतक कोई व्यक्ति ऐसा चरखा नहीं बना पाया है जिससे अधिक अच्छा और अधिक सुगमतापूर्वक सूत काता जा सके। थोड़ा-बहुत परिवर्तन करके बनाये गये भिन्न-भिन्न प्रकारके चरखे दिखाई तो देते हैं; लेकिन उन्हें कोई महत्त्व देनेकी जरूरत नहीं है ।

  1. १. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। इसमें लेखकने लिखा था : “यदि दो व्यक्ति, जिन्हें बुनाई की सारी क्रियाएँ आती हों, प्रतिदिन आठ पा नौ घंटा काम करें तो वे प्रतिदिन बड़ी आसानीसे औसतन दो से तीन रुपयेतक कमा सकते हैं। हमने कताई और बुनाईको अवकाशके समय उपयोगका एक अच्छा धन्धा पाया है। "
  2. २. नहीं दिया गया है। यहाँ लेखकने कहा था कि हम हरसाल तीन-चार मन कपास खरीदते हैं और उससे हमारे परिवारके आठ-नौ सदस्योंके कपड़े बन जाते हैं। सन् १९२२ में परिवारके कपड़ोंका खर्च साल भर में ३०० रुपयेसे भी ज्यादा आया था; किन्तु हमारे कताई और बुनाई शुरू करनेके बाद यद खर्चा केवल ४०-५० रुपये आता है ।