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शिक्षकोंकी दीन दशा

सेवा करना अक्लमन्दी है या बेवकूफी ? या फिर भूखे रहकर शिक्षकका काम करने के बजाय उसे दूसरे तरीकेसे देशकी सेवा करनी चाहिए ? मुझे यहाँ यह कह देना चाहिए कि इनमें से कितने ही शिक्षकोंने देशकी पुकारपर कान देकर जो नौकरियाँ छोड़ी थीं, वे कहीं अधिक वेतनकी थीं ।

इस दुःख-कथासे डर जानेकी जरूरत नहीं। बड़े कष्ट सहनके फलस्वरूप ही राष्ट्रोंका निर्माण होता है। या तो हमें सशस्त्र बलवेमें मक्खियोंकी तरह पिस जाना चाहिए और स्वेच्छाचारी सैनिक सत्ताके ताबेदार बन जाना चाहिए तथा अति दूरवर्ती धुंधले भविष्य में लोकतन्त्रात्मक शासन स्थापित करनेकी आशा रखनी चाहिए; या फिर धीरजके साथ, स्वाभाविक रीतिसे, अन्य लोगोंकी नजरोंमें आये बिना, कष्ट-सहन करते रहकर अपने-आपको स्वशासित, आत्मसम्मानपूर्ण राष्ट्रके रूपमें खड़ा करना चाहिए । पत्र लेखकने जिन दुःखोंका वर्णन किया है उन्हें सहन करके ही हम अपने सामने उपस्थित कठिनाइयोंका इलाज कर सकेंगे। यह कष्ट सहन ही स्वराज्यकी सच्ची तालीम है । दोष सारा बालकोंके माता-पिताओंका नहीं है । दोष तो हमारी परिस्थिति में निहित है। हम अभीतक कठिनाइयोंकी परवाह किये बिना अनवरत कार्य करते रहनेका गुण पैदा नहीं कर पाये हैं । राष्ट्रीय शिक्षाका सारा तन्त्र जिस केन्द्रके आसपास घूमना चाहिए वह शिक्षक ही हैं । यदि वे ही असन्तुलित हो जायें तो पूरा ढाँचा ही ढह जायेगा । परन्तु हमारे शिक्षक अनुभवहीन थे । उन सबमें राष्ट्रीय शिक्षा-का अनुराग जीवित रखनेके लिए आवश्यक और अथक कर्तृत्वशक्ति नहीं थी । उनमें आज संगठन क्षमता नहीं, एकाग्रता और आत्मार्पणकी योग्यता नहीं। हर जगह कार्य-कर्त्ता सेवाके एक क्षेत्रमें निष्णात होनेके बदले सभी क्षेत्रोंमें टांग अड़ाते रहे हैं और इसका फल यह हुआ है कि वे किसी भी कामको पूरा-पूरा अंजाम नहीं दे पाये हैं । पर यह अनिवार्य था। काम हमारे लिए बिलकुल नया था । हमारे शासकोंने हमें क्लर्क बननेकी ही तालीम दी है और ऐसा काम हमें सौंपा है जिसमें न कुछ विचारना पड़े न कुछ स्वतन्त्र रूपसे करना पड़े । परन्तु पुरानी व्यवस्था बदलती जा रही है । आरम्भिक उत्साहके दौरमें लगा कि हम यदि बिलकुल ठीक नहीं तो काफी ठीक ढंगसे काम कर रहे हैं। चूँकि वह उत्साह समाप्त हो गया है और सार्वजनिक आश्रयकी नमी भी नहीं बच रही है, इसलिए उन्हीं पौधोंके टिके रहनेकी आशा की जा सकती है जो बुरेसे-बुरे मौसमकी मार सह सकते हैं। जो पाठशालाएँ और शिक्षक अभीतक अडिग बने हुए हैं आशा है कि वे ठीक ढंगके हैं। उन्हें निर्वाहके लिए घर-घर भीख माँगनी पड़ेगी और अगर वे ईमानदार कार्यकर्ता हैं तो इसमें उन्हें शर्म मानने की जरूरत नहीं । पूर्वोक्त प्रधान शिक्षकने कुछ विशिष्ट प्रश्न भी पूछे हैं । वे सर्वसाधारणके लिए उपयोगी हैं । इसलिए वे उत्तर सहित यहाँ दिये जा रहे हैं --

प्र० --बढ़ते जानेवाले कर्जके बोझ से दबे हुए गरीब शिक्षक फाकेकशीके मेहनताने पर इन पाठशालाओंके साथ अपना सम्बन्ध कबतक कायम रख सकते हैं ?

उ०-- मौतकी घड़ीतक । जिस तरह सिपाही तबतक लड़ता है जबतक वह विजयके दर्शन न कर ले या दूसरे शब्दोंमें लड़ाईमें काम न आ जाये ।