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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ही । हाँ, संगठनसे वह बढ़ जरूर गया है। दोनों जातियाँ अपना-अपना सन्तुलन खो बैठी हैं ।

यदि पंजाबियोंने हिन्दू-मुसलमान तनाव के कारण खादी छोड़ दी हो तो खादी और देश के प्रति उनका प्रेम ऊपरी रहा होगा। परन्तु मैं इस बातको नहीं मानता कि उनकी देशभक्ति औरोंसे कम है। इसलिए खादीका इस्तेमाल कम होनेका कारण कहीं और खोजना होगा । इसका स्पष्ट कारण तो यह है कि लोगोंमें यह विश्वास नहीं जम पाया है कि खादीके बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता और मलमल तथा मिलके कपड़े जिस ऐशो-आरामकी जिन्दगीके चिन्ह हैं, वैसी जिन्दगी बसर करनेकी उनकी इच्छा बढ़ गई है । तमाम प्रान्तोंमें पंजाब ही ऐसा है जो अगर चाहे तो विदेशी कपड़ेका बहिष्कार आज ही कर सकता है, पर वह चाहता ही नहीं। मैंने लोगों को यह कहते हुए सुना है कि कितने ही हिन्दू इसलिए खादी पहनने से इनकार करते हैं कि वह मुसलमानों की बुनी होती है और मुसलमान इसलिए इनकार करते हैं कि उन्हें स्वराज्य में कोई दिलचस्पी नहीं । वे अंग्रेजोंको तो निकाल देना चाहते हैं पर उनकी जगह पुराना मुसलमानी शासन कायम करना चाहते हैं और यह भी कहा जाता है कि अगर हिन्दू और मुसलमान दोनों एक सामान्य ध्येयके लिए चरखे के सूत्रमें बँध जायें तो पुराना मुसलमानी राज्य कायम नहीं किया जा सकेगा । मगर इन सबको मैं गर्म दिमागोंकी भभक मानता हूँ। ऐसी बातोंका विचार करनेतक की फुरसत गरीब हिन्दू और मुसलमानोंको नहीं हो सकती । वे तो चरखा चलाकर सालमें अपनी आमदनी थोड़ी-बहुत बढ़ाने के लिए उत्सुक रहते हैं ।

परन्तु खादीका इस्तेमाल कम होनेकी बात तथा पूर्वोक्त पत्रमें जो बातें बढ़ा- चढ़ाकर कही गई हैं उन्हें छोड़ दीजिए तो भी इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि दोनों जातियोंमें वैमनस्यने बड़ा गम्भीर रूप धारण कर लिया है। दिल्ली में नेताओंकी साखका उठ जाना एक ऐसा तथ्य है जिसकी ओरसे कोई आँख नहीं मूँद सकता ।

खुशकिस्मती से समझ फिर लौटती दिखाई दे रही है । जाट और कसाई एक-दूसरेका सिर फोड़नेकी अपनी मूर्खताको समझ गये हैं और कहते हैं कि उनमें सुलह भी हो गई है । पर सबसे आशाजनक खबर तो दूसरे पत्रलेखकोंसे मिली है। उनका कहना है कि एक ओर जहाँ खून-खराबी करनेपर तुले हुए वहशी लोग हैं वहाँ दूसरोंकी जान बचानेपर तुले हुए समझदार स्त्री-पुरुष भी मौजूद हैं और ऐसी मिसालें एक-दो ही नहीं बल्कि बहुत ज्यादा हैं; इससे लगता है दोनों जातियोंके लोगोंमें लड़ाईकी इच्छा जितनी बलवती थी, उतनी ही शान्तिकी भी थी । लड़ाई स्वाभाविक नहीं है, वह तो शरीरपर उठनेवाले अदीठ फोड़ेकी तरह है। लेकिन शान्ति एक शाश्वत वस्तु है। दोनों जातियाँ यदि एक बार इस बातका निश्चय कर लें कि हम एक-दूसरे के धार्मिक रीति-रिवाजोंका लिहाज रखेंगे तो फिर कोई बात मुश्किल नहीं है। मेरे पंजाब जानेके विषयमें यह बात छिपी नहीं है कि मेरा दिल उन जगहों पर जाने के लिए तड़प रहा है, जहाँपर तनाजा फैला हुआ है । इच्छा तो अपार है; शरीर साथ नहीं दे पाता । जैसे ही देखूँगा कि सफर करनेमें तन्दुरुस्ती के लिए