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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि उन्होंने चरखे के खिलाफ जो दलीलें पेश की हैं वे ऐसी बातोंको लेकर की हैं जो मैंने उसके बारेमें कभी कहीं ही नहीं ।

अब कौंसिलोंका प्रश्न लीजिये । मैं कुछ हदतक कौंसिलोंकी उपयोगितासे इनकार नहीं करता । मेरा तो इतना ही कहना है कि वे जनताके किसी कामकी नहीं हैं और चूंकि कांग्रेसको अपना राष्ट्रीय स्वरूप कायम रखने के लिए मुख्यतया जनताका प्रतिनिधित्व करना ही चाहिए और ऐसा कार्यक्रम ही सामने रखना चाहिए जिसमें जनता खुलकर भाग ले सके; इसलिए मेरा यह कहना है कि बहिष्कारको जैसाका-तैसा कायम रहने देने में ही बुद्धिमत्ता है । मेरे इस प्रस्तावकी पुख्तगी तो जिस हिसाब से हम नीचे उतरकर जनताके साथ अपनेको एक करेंगे उसी अनुपातमें महसूस की जा सकेगी। वकील लोग और धारासभावादी यदि मेरे कथनकी सत्यताको समझ सकें तो वे कांग्रेस के पदोंका खयाल किये बिना ही प्रजाकी अच्छी सेवा कर सकते हैं और कांग्रेस में रह सकते हैं ।

कार्यक्रममें कोई बुराई नहीं है। बुराई तो हमारे आपसके अविश्वास में, असहिष्णुता-में, कल्पना शक्तिके अभाव में और पदलोलुपतामें ही है । यदि दोनों पक्ष सत्ताकी चाह छोड़ दें और केवल सेवा करना ही सीख लें तो असहयोगका कार्यक्रम ही एकमात्र सच्चा राष्ट्रीय कार्यक्रम साबित होगा । क्या यह समझ मुश्किल है कि बहुतसे गाँव जहाँ रेल नहीं पहुँची है, अदालतों, पाठशालाओं और धारासभाओंके बारेमें कुछ भी नहीं जानते और परिस्थितिवश कहिए उनका बहिष्कार ही किये हुए हैं । यदि हम जो उनकी सेवा करना चाहते हैं, सत्ताकी चमक-दमकको तुच्छ मानने लगें तो इन करोड़ों ग्रामवासियोंके लिए कुछ आशा बँध सकती है। अगर हम ऐसा न करें तो फिर एक सुयोग्य देशभक्त के गम्भीरतापूर्वक कहे गये निम्न कथनको ही ठीक माना जायेगा :

मैं आपके कार्यक्रममें विश्वास नहीं करता, क्योंकि जनताके सम्बन्ध में जैसा आपका भाव है वैसा मेरा नहीं है । वे प्लेगमें या भूख से मर जायें इससे बेहतर तो यही है कि मैं उन्हें सिर्फ लड़ाईके मैदान में ले जाकर वहीं उनकी आहुति चढ़ा दूँ। यह सच है कि यह बलिदान दिलसे नहीं होगा, किन्तु वह जरूरी है। जब इन लोगोंको, जो समाजके लिए सिर्फ भारस्वरूप हैं, रणक्षेत्रमें कटवाकर भारतवर्ष रहने के काबिल देश बनेगा, उस समय भारतवर्ष भूखों मरने-वाले लोगों और गुलामोंका देश नहीं, स्वतन्त्र मनुष्योंका स्वतन्त्र देश होगा ।

उक्त सज्जनसे मैंने कहा कि यदि मैं उनकी बातको स्वीकार कर सकूँ तो उनकी दलीलको लाजवाब मानूंगा। लेकिन जब हम एक-दूसरेके पूर्व पक्षको ही ठीक नहीं मान सके तब अपने-अपने मतोंपर कायम रहना ही हमने ठीक माना । हमने एक-दूसरेके निष्कर्षोको आदरकी दृष्टिसे देखा और अच्छे-अच्छे मित्रोंकी तरह एक-दूसरेसे बिदा ली। मुझे तो अपने अदना से अदना देशवासीको साथ लेकर चलना है फिर चाहे नया पार लगे, चाहे डूब जाये । यदि श्री आचार्य मेरी इस स्थितिको जाननेका कष्ट उठायें तो वे १९२० की और आजकी मेरी बातमें कोई अन्तर नहीं पायेंगे ।

[ अंग्रेजी से ]
यंग इंडिया, २४-७-१९२४