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बंगाल कष्ट निवारण समितिके खादी-कार्यसे सम्बन्धित तथा खादी निकाय, खावी प्रतिष्ठान, और देशी रंग-निधिसे सम्बन्धित लगभग सभी स्वयंसेवक और कार्यकर्त्ता हिन्दू हैं । और इन संस्थाओंसे जो लाभ उठाते हैं, उनमें सबसे अधिक संख्या मुसलमानोंकी है। ये हिन्दू कार्यकर्ता अपने केन्द्रोंसे मीलों चल कर मुसलमानोंकी झोपड़ियोंमें कपास और रुई पहुँचाते हैं । वे काता हुआ सूत तोलते हैं, उसकी मजदूरी देते हैं; चरखोंकी मरम्मत करते हैं, कल-पुर्जे जुटाते हैं, कातनेवालोंका हिसाब तैयार करते हैं और कपास या गई, जिसे जो चाहिए सो देते हैं । इस प्रकार ये हिन्दू कार्यकर्ता अपनी मुसलमान बहनोंकी सेवा उनके भाइयों की तरह करते हैं । हिन्दू कार्यकर्त्ताओं और मुसलमान कातनेवालों, बुनकरों तथा उनके कुटुम्बोंके बीच एक-दूसरे के प्रति इतना आदरभाव है कि उनको देखकर कोई भी यह अनुभव नहीं कर सकता कि वे भिन्न-भिन्न धर्मावलम्बी हैं। वे इस प्रकार बोलते और व्यवहार करते हैं, मानो वे सब बंगाली हैं और एक ही कौम और मानव-बिरादरीके लोग हैं। सचमुच, यदि देशके और भागों में भी चरखेका ऐसा ही प्रचार किया जाये, जैसा सतीश बाबूके 'तरुण' कार्यकर्त्ता कर रहे हैं तो हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीचका मौजूदा तनाव बहुत-कुछ कम और यदि भगवान्ने चाहा तो लुप्त ही हो जायेगा ।

अधिक उत्पादन ?

पाठकोंने श्री भरूचाके विवरणमें लक्ष्य किया होगा कि डा० रायको अपनी खादीको खरीदने के लिए ग्राहक जुटाने में कठिनाई होती है । यही शिकायत कर्नाटकके डा० हार्डीकरने भी की है। मैं पंजाबमें बेकार पड़े हुए संग्रहका एक पिछले अंकमें पहले ही निर्देश कर चुका हूँ। चूँकि गुजरातको आन्ध्रसे बहुत ज्यादा खादी खरीदनी बन्द करनी ही है, इसलिए आन्ध्र भी अधिक उत्पादनकी शिकायत करेगा । यही बात लगभग प्रत्येक खादी उत्पादक प्रान्तपर लागू होती है। फिर भी समूचे भारतमें खादीका सारा संग्रह अधिकसे-अधिक बीस लाखसे ज्यादाका नहीं होगा । आप इसकी तुलना करोड़ों रुपयोंकी कीमत के विदेशी वस्त्र के संग्रहसे करें । क्या यह बात हमारे कार्य तथा धनाढ्य लोगोंकी देशभक्तिपर धिक्कारके योग्य नहीं ठहरती ? एक करोड़पति खादी के सम्पूर्ण वर्तमान संग्रहको खरीदकर उसे गरीबोंमें सस्ते भावसे बेच सकता है । कोई देशभक्त मिल-मालिक भी नुकसान उठाये बिना ऐसा ही कर सकता है । हमारे अधिवेशनों में हजारों लाखों स्त्री-पुरुष इकट्ठे होते हैं । यदि वे सारी खादी एक ही दिनमें खरीद डालें तो वे कुछ निर्धन नहीं हो जायेंगे । सार्वजनिक संस्थाएँ बिना कुछ अथवा अधिक हानि उठाये अपनी कपड़ेकी आवश्यकता खादी खरीदकर पूरी कर सकती हैं । बम्बई ऐसे मामलों में सदा आगे रहा है । अगर बम्बईके बीस लाख निवासी इतना ठानलें तो वे वर्तमान अतिरिक्त संग्रहको बहुत ज्यादा नुकसान उठाये बिना ही खरीद सकते हैं । किन्तु मैं शिकायत नहीं करना चाहता । दोष