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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जनताका नहीं है । यह अभीतक सिद्ध तो हुआ नहीं है । दोष कार्यकर्त्ताओंका है। जैसे हम उत्पादनकी व्यवस्था करते हैं, वैसे ही हमें बिक्रीकी भी व्यवस्था करनी होगी। नियम यह होना चाहिए कि प्रत्येक प्रान्त जितनी खादी उत्पन्न करता है उतनी बेचे भी। साथ ही प्रत्येक प्रान्तको अपने पूरे सामर्थ्य से खादीका उत्पादन करना चाहिए और यदि कुछ अतिरिक्त माल बचे तो उसे बम्बई, कलकत्ता और मद्रास जैसे प्रमुख शहरोंको, जो स्वयं सफल उत्पादन केन्द्र नहीं होंगे, भेज देना चाहिए। इन सबके लिए व्यवस्था और विचार करनेकी आवश्यकता है। प्रत्येक प्रान्तको अपनी न्यूनतम बिक्री निर्धारित करनी होगी। यदि किसी प्रान्तके कातनेवाले और कार्यकर्त्ता खुद विदेशी या मिलका कपड़ा पहनें और अपना तैयार किया हुआ माल बिक्रीके लिए बाहर भेजें तो इससे काम नहीं चलेगा। इस प्रकारकी व्यवस्थाकी ओर पहला कदम निःसन्देह यह है कि अ० भा० कां० कमेटीका कताई-सम्बन्धी प्रस्ताव पूर्णतः कार्यान्वित किया जाये ।

अः प्रतिनिधि

अतः यह प्रसन्नताकी बात है कि विभिन्न प्रान्त कताई-सम्बन्धी प्रस्तावका समर्थन कर रहे हैं और अपने-अपने प्रान्त में कताईकी व्यवस्था कर रहे हैं। मुझे आशा करनी चाहिए कि इसमें कोई भी प्रान्त पीछे नहीं रहेगा । किन्तु मेरा खयाल है कि कोई भी यह नहीं सोचता है कि कताई-सम्बन्धी प्रस्ताव जिस पुरुष या स्त्रीपर लागू नहीं होता उसे कातने अथवा अखिल भारतीय खादी निकायको अपना सूत भेजने की आवश्यकता नहीं है । वह प्रस्ताव आदेशात्मक है और अ० भा० कां० कमेटी सारे राष्ट्रको आदेश नहीं भेज सकती । किन्तु यदि कांग्रेसके प्रतिनिधियोंके लिए यह अनिवार्य है तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कांग्रेसके अन्य सभी सदस्योंको, अर्थात् चार आना चन्दा देनेवाले निर्वाचकोंको और दूसरोंको भी, इसे अपने लिए अनिवार्य बना लेना चाहिए और जितना सम्भव हो, उतना हाथकता सूत केन्द्रीय संगठनको प्रेषित करनेके लिए खादी निकाय मन्त्रीको अथवा उसके प्रान्तीय प्रतिनिधिको भेजना अपना नैतिक कर्त्तव्य समझना चाहिए । यदि समूचा राष्ट्र दलोंका खयाल छोड़कर, सहयोग करे तो हम देखेंगे कि हमारे देशसे विदेशी कपड़ा और साथ ही गरीबी भी बहुत ही कम समयमें समाप्त हो सकती है। खादी के इस कार्यकी व्यवस्था करने जैसा सरल कोई दूसरा काम है ही नहीं और यदि हम एक राष्ट्रके रूपमें इस साधारणसे कार्यकी भी व्यवस्था नहीं कर सकते तो हमसे किसी अन्य बड़े रचनात्मक कार्यकी व्यवस्था भी करते नहीं बनेगी ।

कपड़ा या इस्पात

आचार्य रायने राष्ट्रके नाम एक करुण अपील प्रकाशित की है। उनके कहनेका तात्पर्य यह है कि यदि इस्पातको संरक्षण देनेके लिए प्रतिवर्ष डेढ़ करोड़ रुपयेकी सहायता देनी उचित है तो निश्चय ही खादीको संरक्षण देनेके लिए उससे भी बड़ी रकम देना कहीं अधिक उचित होगा ।