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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनकी सेवाएँ मिलती रहेंगी। श्री गंगाधरराव [ देशपाण्डे ] ने केवल कर्नाटकके सामने ही नहीं, बल्कि सारे देशके सामने जो बढ़िया मिसाल पेश की है उससे ऐसी आशा रखी जा सकती है कि इस्तीफा देनेवाले सभी सज्जन उनका अनुकरण करके अपने पद छोड़ देनेपर भी देशकी सेवा करते रहेंगे। गुजरातके सामने तो श्री कालिदास झवेरीकी मिसाल है। वे इस्तीफा दे देने के कारण सेवा करना बन्द कर देंगे -- ऐसी बात नहीं है । जो लोग कांग्रेसके प्रस्तावोंपर अमल नहीं कर सके हैं, वे यदि पदाधिकारी रहते हैं तो मानो खुद अपनेको और देशको धोखा देते हैं। ऐसा करनेसे किसी भी संस्थाका काम नहीं चल सकता । जो शख्स खुद विदेशी कपड़ा पहनता हो वह दूसरोंसे उसका बहिष्कार कैसे करा सकता है ? जो खुद वकालत करता हो वह दूसरोंसे वकालत कैसे छुड़ा सकेगा ? जो खुद अपने लड़कोंको सरकारी पाठशाला में पढ़ाता है वह राष्ट्रीय पाठशालाका काम कैसे चला सकता है ? फिर यदि बहिष्कार- को माननेवाले और उसका पालन करनेवाले लोगों में कांग्रेस संगठनको चलानेकी क्षमता न हो तो स्वराज्यका अर्थ ही क्या होगा ? और यदि बहिष्कारपर अमल करनेवाला कोई भी न हो तो बहिष्कारको भावनाके रूपमें भी किस तरह कायम रखा जा सकता है ? भावनाके रूपमें वही वस्तु रह सकती है जिसपर कुछ लोग तो जरूर अमल करते हों । कोई वस्तु भावनाके रूपमें इसी उद्देश्यसे कायम रखी जाती है कि उसपर किसी-न-किसी दिन तो अमल किया जाना है । यदि उसपर कोई भी अमल न करें तो फिर वह भावना नहीं, बल्कि ढकोसला मानी जायेगी। आज जो स्वच्छता हो रही है उससे ढकोसला मिट रहा है । यह कोई साधारण बात नहीं है। इसका अर्थ यह है कि हम जिस तरह भी विचार करें उसी तरह हमें एक ही जवाब मिलता है कि कमेटीके प्रस्ताव और उसकी रूसे दिये जानेवाले इस्तीफे दोनों ही स्वागत योग्य हैं ।

शिक्षकोंके विषयमें क्या ?

परन्तु एक कुमार मन्दिरके आचार्य पूछते हैं कि जिस जगह लोगोंको राष्ट्रीय पाठशालाकी चाह न हो और शिक्षक वेतन न मिलनेसे भूखों मरते हों, वहाँ शिक्षकोंको क्या करना चाहिए ? ऐसा ही सवाल एक बंगाली शिक्षकने किया था। मैंने उसका जवाब 'यंग इंडिया' में दिया है।[१] हम उसी प्रश्नपर यहाँ कुछ अधिक सुक्ष्मतासे विचार करते हैं। अब्बास साहबने[२] इस सवालपर दूसरे ढंगसे विचार करनेका भार मुझपर डाला है । वे कहते हैं कि कितने ही गाँवों में पाठशालाएँ हैं ही नहीं । वहाँ क्या किया जाये ? पहली कठिनाईका जवाब सरल है। यदि शिक्षकमें प्रतिभा होती है तो वह अपना काम हर उपायसे चला लेता है। शिक्षक तो चुम्बककी तरह काम करता है। उसके आसपास लड़के बने ही रहते हैं और उसे घड़ी-भर छोड़ना पसन्द नहीं करते। विद्यार्थियोंको उसका वियोग असह्य हो जाता है । माँ-बाप ऐसे शिक्षक-

  1. १. देखिए "शिक्षकोंकी दीन दशा”, २४-७-१९२४ ।
  2. २. अब्बास तैयबजी ।