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का त्याग हरगिज न करेंगे। यदि शिक्षक धनी हो जाता है तो वह चोर' समझा जाता है और भूखों मरता है तो 'बुद्ध' माना जाता है। उक्त शिक्षकोंको मेरी सलाह है कि वे घर-घर भीख माँगकर अपना पेट भरें; लेकिन अपना शिक्षा-धर्म न छोड़ें। काका कालेलकरने[१] एक जगह लिखा है कि शिक्षाको धन्धा न मानना चाहिए । उनका यह कथन बिलकुल ठीक है ।

फिर आज तो शिक्षा सस्ती हो जानी चाहिए। लड़के पढ़ें और पढ़ते हुए कमायें। पहले जमाने में ऐसा ही होता था । विद्यार्थी 'समित्पाणि' होकर गुरुके पास जाता था । उसके दो अर्थ हैं । एक अर्थ यह है कि वह उसके द्वारा अपना भार गुरुपर न डालने और मेहनत-मजदूरी करके अपना और अपने गुरुका निर्वाह करनेकी प्रतिज्ञा करता है । उसका दूसरा अर्थ यह है कि वह सदा विनयशील रहेगा। इन दोनों बातोंकी जरूरत आज भी है। चरखेमें मजदूरी और विनय दोनों हैं। उक्त शिक्षक लड़कोंको रुईकी तमाम विधियाँ सिखायें और उनसे बढ़िया सूत कतवायें । वे खुद भी उनके सामने बैठें और सूत कातें । वे साथ-साथ लड़कोंको पहाड़े याद करायें। संस्कृत धातुओं और संज्ञाओंके रूप कण्ठस्थ करायें। वे उन्हें श्लोकोंके अर्थ समझायें और अच्छी-अच्छी ऐतिहासिक कथाएँ सुनायें। वे लड़कोंके लिए चरखा कातना एक सरस और ज्ञानमय विषय बना दें। ऐसा होनेसे लड़कोंका जी भी न ऊबेगा । तकलीसे सूत कातने की विधि एक लेखमें अन्यत्र दी गई है। उसकी तजवीज करनेसे काम तुरन्त शुरू किया जा सकता है ।

अब अब्बास साहबके सवालपर विचार करें। 'नवजीवन' के पाठक शायद ही इस बातको जानते होंगे कि भारतमें अंग्रेजीका ज्ञान चाहे बढ़ गया हो, परन्तु समष्टि-रूपसे अक्षर-ज्ञान कम हो गया है । हिन्दुस्तानमें पिछले पचास वर्षोंमें देहाती पाठशालाओंकी संख्या कम हो गई है। इसका अर्थ यह है कि जितने अंशमें हम मध्यम-वर्ग के लोग अपनेको ऊँचा उठा मानते है उतने ही अंशमें देहाती बालक नीचे गिरे हैं। ज्यों-ज्यों हमारी आर्थिक उन्नति हुई है त्यों-त्यों देहातकी अवनति हुई है उसी तरह ज्यों-ज्यों विद्यामें हमारी उन्नति हुई हैं त्यों-त्यों उनकी अवनति । यह बात है तो भयंकर, परन्तु है बिलकुल सच । कोई भी अर्थशास्त्री इस बातको साबित कर सकता है । ब्रह्मदेशमें ऐसा देखा गया है कि अंग्रेजी राज्य आनेसे पहले प्रायः तमाम बालकोंको अक्षर ज्ञान था -- क्योंकि वहाँतक एक भी गाँव पाठशालाके बिना न था । वहाँ आज हालत बदलती जा रही है। ग्रामीण पाठशालाएँ टूटती जा रही हैं और इससे अक्षरहीनता बढ़ती जा रही है ।

हमारा आन्दोलन मुख्यतः गरीबोंके लिए है। इसलिए वह जिस हदतक उनमें फैलेगा उसी हदतक गरीबोंकी आर्थिक और बौद्धिक उन्नति होगी। इसका उपाय यह है कि हर गाँवमें एक स्थानीय पण्डित खोजकर उससे पाठशाला खुलवाई जाये । वह पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाये । हिन्दुओंके लड़के मन्दिरोंमें पढ़ें और मुसलमानोंके मस्जिदों में । लोग इस तरह कार्य आरम्भ करें और फिर दोनोंके लिए एक ही पाठशालाकी

  1. १. दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर ।