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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जितना हक दूसरोंका है उतना ही अन्त्यजोंका है । यदि हम अदालतमें जायें तो अदालत भी इस मामले में एक ही निर्णय देगी और वह यह है कि शिक्षक और व्यवस्थापक अन्त्यज बालकोंको स्कूल में दाखिल करनेके लिए बाध्य हैं । जो व्यवस्था-पक अथवा शिक्षक इसमें आनाकानी करते हैं, वे जिन्होंने दान दिया है, उनके प्रति विश्वासघात करते हैं ।

कांग्रेसके अनुयायी अथवा सहायकगण तो अस्पृश्यता निवारणको राष्ट्रका अविचल सिद्धान्त मान चुके हैं। यह प्रश्न १९२० से लोगों के सम्मुख प्रस्तुत है। इसमें फेरफार करनेका सुझाव देनेकी हिम्मत किसीको नहीं है । इसी सिद्धान्तकी रक्षाके लिए तो विद्यापीठने[१] अपने अस्तित्वको जोखिममें डाला था । इसी सिद्धान्त की रक्षा के लिए तिलक स्वराज्य कोषमें चन्दा उगाहनेवाले कार्यकर्त्ताओंने लिखी हुई चन्देकी रकमें छोड़ी थीं । मेरी इच्छा है कि वढ़वानकी राष्ट्रीय पाठशालाके धर्मनिष्ठ व्यवस्थापक और शिक्षक तथा अन्य नागरिक इसी सिद्धान्तपर चलने और धर्मका पालन करने के लिए तैयार रहें।

वढ़वानके नागरिक बुद्धिमान हैं, उदार हैं । वे धर्मान्ध नहीं हैं, परन्तु धर्मिष्ठ हैं । उनका मुझपर हमेशा यही प्रभाव पड़ा है । इस शहरमें अन्त्यजोंका तिरस्कार नहीं होना चाहिए। इस शहरकी राष्ट्रीय पाठशाला में अन्त्यजों का स्वागत किया जाना चाहिए, उनको प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए और जहाँ अन्त्यज बालक आते हों वहाँ माता-पिताओंको अपने बच्चोंको भेजना कर्त्तव्य ही समझना चाहिए। मेरी उनसे प्रार्थना है कि वे इस सम्बन्धमें दृढ़तासे और केवल सिद्धान्तको ध्यान में रखकर विचार करें और उन्होंने जो प्रतिज्ञा की है उसका पालन करें।

स्कूलके सामान्य नियमोंमें फेरफार किया जा सकता है। लेकिन जिन सिद्धान्तोंको आधार मानकर स्कूलकी स्थापना की गई है, उनमें फेरफार करना सामर्थ्य के बाहरकी बात है। इस पाठशालाकी स्थापना एक निश्चित उद्देश्यको ध्यान में रखकर की गई है और वह विधि विधानके समान अपरिवर्तनीय है । ज्यादासे ज्यादा इतना ही किया जा सकता है कि जिन माता-पिताओंकी धार्मिक मान्यता विरुद्ध बैठती हो वे अपने बच्चोंको पाठशालासे निकाल लें । लेकिन इसमें व्यवस्थापकों अथवा शिक्षकोंके निकल आनेकी कोई गुंजाइश नहीं है । उन्हें तो जबतक एक भी अन्त्यज बालक हो पाठशाला चलानेके लिए कटिबद्ध रहना चाहिए । स्कूलकी, शिक्षकोंकी, व्यवस्थापकोंकी और बढ़वानकी प्रतिष्ठा इसीमें है ।

स्वराज्यके धर्मयुद्धमें तो ऐसी अनेक विडम्बनाएँ आयेंगी । हमने इस युद्धमें केवल दो साधनोंसे काम लेनेका निश्चय किया है; वे हैं सत्य और अहिंसा । यदि पाठशालाके सिद्धान्तमें कोई परिवर्तन किया जायेगा तो वह सत्य और अहिंसाका त्याग होगा । धनका, मानका, कुटुम्बका और प्राणका त्याग करना पड़े तो भी सत्यका अर्थात् प्रतिज्ञाका और अहिंसाका अर्थात् अन्त्यजोंके प्रति प्रेमका त्याग कदापि नहीं किया जाना चाहिए; यह सब धर्मोका सार है । इसके पालनमें न्यूनता, धर्मके पालनमें न्यूनता मानी जायेगी ।

  1. १. गुजरात विद्यापीठ, इसकी स्थापना १९२० में गांधीजीने की थी ।