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छोटी-छोटी बातोंकी चिन्ता करनेकी आवश्यकता

परन्तु हम अनेकों बूंदों और कंकड़ोंके चमत्कारसे परिचित हैं । यही चमत्कार बहुत लोगोंके थोड़े परन्तु नियमपूर्वक कातनेसे होता है । जिस प्रकार ईंटोंके ढेरसे मकान नहीं बन जाता, वह तो उन्हें यथानियम लगाने और जोड़नेसे ही बनता है; उसी प्रकार नियमपूर्वक कते सूतकी यथानियम व्यवस्था करनेसे ही सबका पालन करनेवाली खादी तैयार होती है ।

आम तौरपर थोड़ेसे किसान बहुत-सा अनाज उगाते हैं। यूरोपीय महायुद्ध के समय इंग्लैंडमें खाद्य सामग्रीकी कमी पड़ गई थी। खेतोंमें खड़ी फसल काफी न थी । आलूकी फसल उगाना सबसे आसान था । अतः हर शहरीको अपने पाँच-पचीस वर्ग गजके अहातेमें आलू बोनेपर मजबूर किया गया था। एक अहातेमें उगे आलुओंसे तो एक कुटुम्बका पेट शायद ही भर सकता था; परन्तु हजारों अहातोंमें बोये हुए आलुओंकी मदद अनमोल हो गई। उसी तरह असंख्य रेड क्रॉस-बिल्लों और कुरतोंकी जरूरत थी। इसके लिए दरजी काफी न थे अतः उन लोगोंसे भी यह काम कराया जाता था जिन्होंने कभी सुई-धागा हाथमें भी नहीं लिया था। नौसिखियोंके लिए नमूने रख दिये गये थे । उनके लिए सिखानेवालोंकी व्यवस्था भी की गई थी और इस प्रकार हजारों स्वयंसेवकोंसे, जो लड़ाई में नहीं जा सकते थे और जिनके पास थोड़ा-बहुत भी समय बचता था, ऐसा काम लेकर लाखों रेड क्रॉसके बिल्ले और कुरते मुफ्त तैयार कराये गये थे। एक आदमीकी मेहनतकी कोई कीमत नहीं परन्तु एक समुदायकी एक ही तरह की हुई मेहनतने उस समय सोनेसे भी अधिक कीमती काम किया। उस काममें वकील, विद्यार्थी, दलाल, स्त्रियाँ और पुरुष सब शामिल होते थे और गर्वका अनुभव करते थे । शायद पाठक यह नहीं जानते कि इस कामम सरोजिनी देवी और में भी शरीक था । तब हमने यह नहीं सोचा कि यह काम तो दरजीका है । अमीर-उमरावोंने उसे अपनी प्रतिष्ठाके अयोग्य नहीं माना था । आज जब मैं किसी पढ़े-लिखे आदमीको चरखा कातनेवालेकी हँसी उड़ाते हुए देखता हूँ तब मुझे अपना लड़ाईका अनुभव याद आ जाता है। जब इस समय और उस समयकी तुलना करता हूँ तो देखता हूँ कि हिन्दुस्तानमें भड़के हुए इस दावानलको बुझानेके लिए जितनी जरूरत आज सब लोगोंके कातने की है उतनी उस भयंकर लड़ाईके समय लोगोंके लाल स्वस्तिकवाले बिल्ले बनाने और कुरते सीनेकी नहीं थी ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २७-७-१९२४