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मेरी लँगोटी

कर ही फिरते हैं। करोड़ों लोगोंने चप्पलें देखी भी नहीं होतीं । उन्हें उनकी जरूरत भी नहीं मालूम होती । गरीब लोग पट्टीदार गलेके कुरते कहाँसे लायें ? उन्हें टोपी भी कौन दे ? हम ऐसे कपड़े पहनकर इन गरीबोंको कपड़े नहीं पहना सकेंगे; लेकिन हमारा धर्म तो यही है कि हम उन्हें पहनाकर पहनें, खिलाकर खायें। इन सज्जनको तो पोशाककी पड़ी है। मैं नम्रतापूर्वक यह बता देना चाहता हूँ कि इस देशके गरीबों को तो खाना भी पूरा नहीं मिलता -- फिर पोशाकके सुधारकी तो बात ही क्या हो सकती है ।

अब सभ्यताको लें । सभ्यता कोई निरपेक्ष शब्द नहीं है । उसका अर्थ सब जगहोंपर एक ही नहीं होता । पश्चिमकी सभ्यता पूर्वके लिए असभ्यता हो सकती है । पश्चिमका कितना ही पहनावा पूर्व में असभ्य समझा गया है। मुझे अमेरिकामें तो कैदमें ही रखा जायेगा । श्री नारायण हेमचन्द्र[१] धोती पहननेके जुर्म में कैदमें रखे गये थे। मेरी माँ हम भाइयोंको पतलून पहने देखकर दुःखी होती थी । वह इसे नंगा पहनावा मानती थी । असंख्य हिन्दू लँगोटीको असभ्य पोशाक कदापि नहीं मानते । साधु लोग केवल लँगोटी ही लगाते हैं किन्तु इससे वे असभ्य नहीं माने जाते ।

मेरी नजरमें तो कम कपड़े पहननेमें असभ्यता है ही नहीं । कपड़ोंकी जरूरत केवल शरीरकी रक्षाके लिए होती है । उक्त आलोचकने जिस दृष्टिसे पोशाकके बारेमें लिखा है उस दृष्टिसे तो ज्यादा कपड़ोंमें जो बुराई है वह मेरे-जैसे भिखारीकी लँगोटीमें नहीं हैं । यदि हम मनुष्यका शरीर जैसा है, उसे वैसा ही देखें और समझें तो उसमें मोहका कोई कारण ही दिखाई नहीं देता । इस हाड़-चामके समुच्चयको जब अनेक तर्जके और भाँति-भाँति के कपड़ोंसे सजाते हैं वह तब मोह पैदा करता है । यह विचार ठीक है । इसका एक ही दृष्टान्त देता हूँ। मुरदेपर कोई मुग्ध हुआ हो, ऐसा आज-तक नहीं सुना है। मोह केवल शरीरस्थ जीवसे होता है । फिर शरीरके लिए इतना विचार क्यों ? उसका इतना श्रृंगार किसलिए ?

बहनें मुझे दर्शन देनेके लिए आती हैं । वे मुझपर मोह रखती हैं और मुझे आशीर्वाद देती हैं। इनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही होती हैं। मेरा विश्वास है कि वे मेरे शरीरको देखनेके लिए कदापि नहीं आतीं । वे मेरे शरीरको देखती हैं ऐसा मुझे कभी नहीं लगा; और यही उचित भी है। पुरुष हो या स्त्री उसे मित्रके शरीरको देखना ही नहीं चाहिए । अगर अनजानमें देख भी ले तो उसको उसकी ओरसे फौरन नजर हटा लेनी चाहिए। एकको दूसरेका केवल चेहरा ही देखनेका अधि- कार है । लक्ष्मण जैसे संयमीने तो सीताके केवल चरण ही देखे थे क्योंकि वे नित्य उनकी वन्दना किया करते थे । इसलिए जब बहनें मुझे आशीर्वाद देनेके लिए आती हैं, तब उन्हें देखकर मुझे अपनी लँगोटी के कारण कभी संकोच नहीं हुआ । मैं तो उनकी दयाका ही भूखा हूँ। मैं उनसे बहुत मदद चाहता हूँ । वे थोड़ी मदद कर भी रही हैं, लेकिन वह अभी बहुत ही कम है । हिन्दू और मुसलमान बहनें जब चरखेको

  1. १. गुजरातके एक भाषाविद् और विद्वान्, जिनसे गांधीजीकी मुलाकात इंग्लैंड में हुई थी; देखिए आत्मकथा, भाग १, अध्याय २२ ।