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२४५. खण्डन

कुछ समय पहले 'नवजीवन' में पेटलाद स्टेशनपर किसी बनिए द्वारा एक अन्त्यज-पर आक्रमण किये जानेकी खबर छपी थीं। इस बारेमें एक वैष्णव भाई लिखते हैं कि जाँच करनेपर यह बात बिलकुल निराधार पाई गई है। मैं उनके भेजे हुए खण्डनको प्रकाशित कर रहा हूँ, पर यह मानकर नहीं कि ऐसी घटना नहीं हुई होगी । मुझे तो यह खण्डन ही निराधार लगता है। जबतक शिकायत करनेवालेका नाम-धाम न मालूम हो और उसे किसीने देखा न हो तबतक आक्रमण नहीं हुआ, ऐसा निर्णय कौन कर सकता है ? यदि पेटलादके सब लोग यह कहें कि उन्होंने आक्रमण होते नहीं देखा और उनका यह कहना सच भी हो तो भी आक्रमणका होना सम्भव हो सकता है । इस तरह खण्डन किये जानेपर भी हम अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसी घटनाएँ घटित होती हैं । इसलिए इसका घटित होना भी सम्भव तो है । इस मान्यता के आधारपर मेरी यह नम्र राय है कि हमें ऐसे आक्रमणोंके विरुद्ध लोकमत तैयार करना चाहिए ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २७-७-१९२४

२४६. पत्र : जवाहरलाल नेहरूको

साबरमती
२७ जुलाई, १९२४

प्रिय जवाहरलाल,

मेरे विचारसे तो तुम्हें सरकारसे पत्र व्यवहार करके यह पता लगाना चाहिए कि प्रतिबन्धका[१] कारण क्या है और उससे कहना चाहिए कि अगर तुम्हारी समितिको सचमुच कोई आपत्तिजनक चीज दिखाई जा सके तो वह सम्बन्धित अंशोंको निकाल देने को तैयार है । अगर सरकारका उत्तर असन्तोषजनक हो तो उसे सूचित कर दो कि जो शब्द प्रचारित किये जा चुके हैं, उन्हें वापस नहीं लिया जायेगा ।

सरकार बच्चोंको परेशान करेगी, ऐसा नहीं लगता; बहुत हुआ तो वह पुस्तकें बच्चों के पास नहीं रहने देगी। उस हालतमें बच्चोंसे यह कह दिया जाये कि वे परेशान न हों और पुलिसको पुस्तकें दे दें । मेरी समझमें इसके लिए कोई और दण्ड नहीं दिया जा सकता । जरा कानूनको देखकर मुझे स्थिति बताओ। मुझे लगता है कि हम चाहे कितने भी पस्त हो गये हों, सरकार अगर हमपर किसी बातको लेकर संघर्ष थोपना चाहे तो हम उससे मुँह नहीं चुरा सकते। अभी आक्रामक

  1. १. रामदास गौड़की पुस्तकों पर। देखिए “टिप्पणियाँ”, १४-८-१९२४, उपशीर्षक " तुरन्त कार्रवाई "।