२६६. पत्र : आसफ अलोको[१]
साबरमती
१ अगस्त, १९२४
आपका पत्र मिला । अपने एक पत्रमें आपने जो कुछ लिखा है, कह नहीं सकता उसके पीछे आपका उतावलापन था या अविवेक । कुछ भी हो, वह था बिलकुल स्वाभाविक; क्योंकि आप अत्यन्त कठिन परिस्थितियोंमें काम कर रहे थे और वह समय ऐसा था जब अगले क्षण क्या आन पड़ेगी, इसका कुछ पता नहीं था । आपकी स्थिति में में होता तो शायद में भी वैसा ही करता और मेरे मनमें भी हर चीज और हर आदमीपर दोष मढ़नेका विचार उठता । जो वक्तव्य अब जारी किये जा रहे हैं, मैं सोचता हूँ कि उनसे कुछ लाभ तो होगा लेकिन मैं चाहूँगा कि कांग्रेस अध्यक्षकी ओरसे कोई निश्चित और अन्तिम निर्णय होने तक ऐसे वक्तव्य जारी न किये जायें।
क्या इन मुकदमोंकी कार्रवाइयोंको रोकने के लिए कुछ किया जा सकता है ? कोई अपराध प्रज्ञेय[२] है या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है ? आखिरकार, जब सम्बन्धित पक्ष मुकदमा दायर नहीं कराना चाहता है तो पुलिसके लिए मुकदमा चलाकर 'उसमें सफलता पाना बहुत मुश्किल गुजरेगा । मैं आपसे सहमत हूँ कि अगर मुकदमेकी ये कार्रवाइयाँ जारी रहीं तो सच्ची बातें सामने नहीं आयेंगी; क्योंकि आपका यह कहना बहुत ठीक है कि उस हालतमें जिन लोगोंको सही जानकारी है वे हमारे पास आने में डरेंगे ।
जो कागज़ात आपने माँगे थे, उन्हें लौटाया जा रहा है ।
हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी
कूच-ए-चेलान
दिल्ली
- मूल अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ५९९५) से ।
- सौजन्य : नारायण देसाई