२६७. भाषण : शिक्षा परिषद् में[१]
अहमदाबाद
१ अगस्त, १९२४
मुझे यह कहते हुए अत्यन्त दुःख होता है कि में जितनी तैयारी करना चाहता था उतनी नहीं कर सका । सच बात तो यह है कि मुझे यह साहस बिलकुल करना ही नहीं था। मेरे पास न तो इतना शरीर-बल है और न इतना समय ही है । परन्तु बहुत दबाव डालनेपर मुझे यह कहना पड़ा कि यदि परिषद् अगस्तके आरम्भ में की जाये तो मैं उसमें आ जाऊँगा । कुछ विचारके बाद मेरी समझ में आया कि उसमें हाजिर होनेके अलावा मुझे कुछ काम भी करने होंगे। मैं अपने विचारोंको लिख डालना चाहता था; परन्तु समय नहीं मिल सका। जितना विचार करना उचित था उतना विचार भी न कर सका । मुझे आशा है, आप इसके लिए मुझे माफ कर देंगे ।
श्री किशोरलालभाईकी[२] माँगको पूरी करना मेरी शक्तिके बाहर है। शिक्षकगण परस्पर सखाभावसे रहें, यह स्थिति ही स्वराज्य है किन्तु यह स्वराज्य देना मेरे बसकी बात नहीं है। ऐसी भिक्षा तो ईश्वरसे ही माँगी जा सकती है। यदि ईश्वर इतना दे दे तो हमें मानो सब कुछ मिल गया। ऐसी भिक्षा आपकी दृष्टिमें चाहे कुछ भी न हो, परन्तु में तो इसे देनेमें असमर्थ हूँ । मैं तो आपको कुछ सुझाव और ऐसे आँकड़े देना चाहता हूँ जिनसे आपको और मुझे कुछ प्रोत्साहन मिले ।
भारतमें आज निराशा छाई हुई है। इसका एक कारण में भी हूँ । मैंने देशके समक्ष एक काल-सीमा रखी थी और कहा था कि हमें एक सालमें स्वराज्य ले लेना चाहिए। एक वर्ष बीत गया; और भी वर्ष बीत गये और मालूम यही होता है कि अभी स्वराज्य दूर है । कुछ लोगोंको तो वह १९२१ में जितना दूर दिखता था शायद उससे भी अधिक दूर दिखाई दे । परन्तु में यह नहीं मानता। मुझे तो स्वराज्य नजदीक आया हुआ दिखाई देता है । परन्तु इसके लिए मेरे जैसी अविचल श्रद्धा होनी चाहिए। किन्तु वह देनेसे नहीं आ सकती । वह तो अनुभवसे ही मिलती है । यदि मैंने काल-मर्यादा न रखी होती और उसके अनुसार हिसाब न लगाया होता तो में समझता हूँ कि जितना काम हुआ है, उतना भी न हुआ होता ।
मैं जो आँकड़े आपके सामने रखना चाहता हूँ, वे आपसे छिपे नहीं हैं । वे हमारा उत्साह कायम रखने के लिए पर्याप्त है। असहयोगके किसी भी अंगके सम्बन्धमें