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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गुजरातने जो काम किया है वह लज्जाके योग्य तो नहीं है, उससे गुजरात ही क्यों, पूरे देशको भी लज्जित नहीं होना पड़ेगा । हम गणित के मुताबिक अपने हिस्सेका पूरा काम नहीं कर पाये, यह बात सच है । परन्तु यदि सभीने अपना-अपना काम यथाशक्ति किया हो और मैं जानता हूँ कि उन्होंने वैसा किया है तो कोई कारण नहीं कि हमें सिर नीचा करना पड़े। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ इसका कारण मैं आपको समझाता हूँ ।

मैंने अपने साथियोंको उलाहना दिया है कि उन्होंने जितना किया उतना ही क्यों किया। कारण यह है कि ऐसा उलाहना देना मेरा धर्म है । जो सेवा करना चाहता है और जिसके सिरपर सेवाके कारण सरदारकी जिम्मेदारी आ पड़ी है उसके लिए तो ज्यादासे ज्यादा कामकी माँग करना लाजिमी है । उलाहना देना उसका धर्म है । परन्तु मैं जब निष्पक्ष रूपसे विचार करने लगता हूँ तब मैं नहीं समझता कि किसीने बेईमानी की है ।

यह तो हुआ उजला पक्ष । इसके समर्थन में मैंने आँकड़े प्राप्त किये हैं। आपको वे आँकड़े मालूम हैं। ये रजिस्ट्रारने तैयार किये हैं और आप शिक्षकोंने ही संकलित किये हैं । मैं इन्हींसे स्वयं उत्साहित होना चाहता हूँ और आपको उत्साहित करना चाहता हूँ। हमारे पास राष्ट्रीय शालाओंमें १०,००० विद्यार्थी हैं, इनमें नगर-पालिकाओंकी तीनों शालाओंके विद्यार्थी शामिल नहीं हैं । हमने उनपर साढ़े तीन लाख रुपये खर्च किये हैं । इन विद्यार्थियोंमें ५०० लड़कियाँ हैं। यह संख्या कम है, परन्तु हम इतनी लड़कियोंको शिक्षा दे रहे हैं। अहमदाबाद, नडियाद और सूरतकी नगर-पालिकाओंने, नगरपालिका क्षेत्रमें असहयोगका तत्त्व प्रचलित करके, अपनी शालाओंको राष्ट्रीय बना दिया है। उन शालाओंके आँकड़े जोड़ें तो विद्यार्थियोंकी संख्या २०,००० हो जाती है । इनमें से १०,००० विद्यार्थी अहमदाबादके हैं। हमारे पास ८०० शिक्षक हैं। इनकी आजीविकाका प्रबन्ध भी इसी साढ़े तीन लाखमें से किया गया है । हमारे दो महाविद्यालय चल रहे हैं और एक पुरातत्त्व मन्दिर भी चल रहा है। इसके सम्बन्धमें मैंने सुना है कि ऐसा काम भारतमें किसी दूसरी जगह नहीं किया जा रहा है । तीन सजीव संस्थाएँ हमें पोषण दे रही हैं और हमसे पोषण ले रही हैं । ये संस्थाएँ हैं दक्षिणामूर्ति विद्यार्थीभवन,[१] चरोतर शिक्षा-मण्डल[२] और भड़ौंच शिक्षा-मण्डल ।[३] इन संस्थाओंके संस्थापक और संचालक इस बातको मानेंगे कि जिस प्रकार इन संस्थाओंने असहयोग करके आन्दोलनको गौरवान्वित किया है उसी प्रकार असहयोगसे बहुत-कुछ पोषण भी लिया है।

इसके अलावा हमने बहुत-सी पाठ्य पुस्तकें भी लिखी हैं। मैंने इनमें से बहुत-सी पुस्तकें जेलमें देखी थीं। मैं दक्षिणामूर्ति और चरोतर शिक्षा-मण्डलकी पुस्तकें भी सरसरी तौरपर देख चुका हूँ। मैं यह नहीं कहता कि मैंने उनको ध्यानपूर्वक पढ़ा है । परन्तु मुझमें बहुत-सी पुस्तकोंको देखते रहने से इतनी शक्ति आ गई है कि मुझे पुस्तकको सरसरी तौरपर देख लेनेसे ही यह मालूम हो जाता है कि इसमें क्या लिखा है, कैसी शैली में लिखा है और लेखकका आशय क्या है। इन पुस्तकोंके लेखकों-

  1. १,
  2. २ व
  3. ३. क्रमशः काठियावाड़, आनन्द और दक्षिण गुजरात में ।