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भाषण : शिक्षा परिषदमें

और इन संस्थाओंको धन्यवाद दिया जाना चाहिए। विद्यापीठकी[१] पुस्तकें इससे अलग हैं। यदि हम गुजरातका आधुनिक अर्थात् पिछले ५० वर्षोंका पूरा इतिहास देख जायें तो हमें मालूम होगा कि ऐसा काम हुआ ही नहीं है। अबतक जो काम किया गया है, वह सब सरकारने किया। उसका श्रेय हम नहीं ले सकते। इसमें लोग तो हमारे ही थे; परन्तु योजना सरकारकी और सरकार द्वारा नियुक्त लोगोंकी थी । यह योजना मौजूदा शासन-प्रणालीकी पोषक थी और इस विचारको प्रधान रखकर बनाई गई थी कि इस प्रणालीको पोषण देनेके हेतु शिक्षा किस प्रकार दी जा सकती है । यह काम जब सरकारने शुरू किया था तब उसने पहले वर्षमें कितनी पुस्तकें प्रकाशित की थीं, हम इसका हिसाब बैठाएँ तो भी हम आगे बढ़े हुए हैं । परन्तु हम किसीसे स्पर्धा नहीं करना चाहते ।

गुजरात सबसे पिछड़ा हुआ प्रान्त था और वह आज भी पिछड़ा हुआ है। गुजराती लोग निरक्षर हैं, सिर्फ व्यापार करना ही जानते हैं और व्यापारसे जितना धन गुजरातमें लाया जा सकता है उतना लानेकी बात ही उन्होंने सोची है । असहयोगसे पहले समाजके लिए साहित्य तैयार करनेकी भावना व्यापक न थी । इस दिशा में सबसे पहले काम करनेवाला है सस्तु साहित्य वर्द्धक कार्यालय -- अर्थात् स्वामी अखण्डा नन्दजी। उन्होंने गुजरात में बहुत सस्ती पुस्तकोंका प्रचार किया। परन्तु असहयोगकी हलचलने तो इसे भी ऐसा दबा दिया है कि हम अखण्डानन्दजीके पुख्ता कामको भूल जा सकते हैं, यद्यपि वह भूलने लायक नहीं है ।

मैंने पाठ्य पुस्तकोंके विषयमें जरूरतसे ज्यादा प्रशंसा की; मैं अब चेतावनी भी देता हूँ। ऐसी पाठ्य पुस्तकोंका एकसा प्रवाह गुजरातमें बहता रहे, यह मुझे पसन्द नहीं है । जब मुझपर यरवदा जेलमें इन पाठ्य पुस्तकोंकी वर्षा होने लगी तब मैं चौंक पड़ा । छपाई आदि सभीकी बढ़िया थी; मैं एकको देखकर तो मुग्ध ही हो गया था। परन्तु यह प्रवृत्ति ऐसी नहीं है जो गुजरातको शोभा दे सके। गुजरात भिखारी नहीं है। गुजरातमें अन्य प्रान्तोंके मुकाबलेमें रुपया अधिक है । परन्तु मेरा खयाल है कि गुजरात इतना भार नहीं उठा सकता। वह पुस्तकोंके इतने बड़े ढेरको हजम भी नहीं कर सकता और इतनी पुस्तकोंको खरीदना उसके सामर्थ्य के बाहर है । यदि ये पुस्तकें अहमदाबाद, सूरत, भड़ौंच और नडियाद जैसे शहरोंके लिए ही लिखी जायें तो फिर मुझे कुछ नहीं कहना है । फिर शहरवासियोंका दिमाग भी इतना भार न उठा सकेगा -- जेवें भले ही उठा सकें। देहाती माता-पिता तो उन्हें किसी प्रकार नहीं खरीद सकते। हम जो पुस्तकें प्रकाशित करके लोगोंके सामने रखें वे ऐसी होनी चाहिए जिन्हें गरीब से गरीब बालक खरीद सके । यदि मेरा बस चले तो मैं एक, दो और चार पसे मूल्यकी पुस्तकें देना चाहूँगा ।

मुझे बताया गया है कि नवजीवन प्रकाशन मन्दिरने भी बहुत-सी पुस्तकें प्रकाशित की हैं। लोग शायद यह नहीं जानते कि उसका मालिक में नहीं, स्वामी आनन्दानन्द हैं। वे तो पुस्तकें छापकर बादमें मुझे खबर दे देते हैं कि उन्होंने ऐसा किया है।

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  1. १. अहमदाबाद स्थित गुजरात विद्यापीठ ।