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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरे पास शिकायतें आई हैं कि आनन्दानन्दने गुजरातको ठगा है और 'नवजीवन' से ५०,००० रुपयेकी भेंट दिलवाई है । वे स्वयं कितने रुपये खा गये, यह क्या आप जानते हैं? ऐसे लोगोंको मैं यही जवाब देता हूँ कि मेरे पास इस तरह पैसा खा जानेवाले साथी नहीं हैं और यदि हैं तो मुझे नहीं मालूम। इस संस्थामें कुछ लोग तो वेतन ही नहीं लेते और कुछ अपनी गुजरके लायक लेते हैं । परन्तु यदि सब लोग उचित वेतन लेते तो उसका जोड़ ५०,००० रुपये से अधिक होता ।

यह बात ठीक है कि यदि मैं बाहर होता तो इतनी पुस्तकें नवजीवन प्रकाशन मन्दिरसे प्रकाशित न होने देता । मैं तो एक पुस्तक लोगों के सामने रखूं तो पहले हजार बार विचार करूँ। मैंने एक मामूली-सी पुस्तक 'बालपोथी'[१] लिखी है । उसे मैं केवल पाँच मिनटमें पढ़ सकता हूँ और तनिक अच्छी तरह पढूँ तो वह १० मिनटमें पूरी हो सकती है । उसपर कितनी ही आलोचनाएँ आई हैं । उन्हें मैं अभीतक पढ़ नहीं पाया हूँ। मैं जानता हूँ कि बहुत-सी आलोचनाएँ ऐसी हैं जिनसे मुझे प्रसन्नता नहीं हो सकती । मेरी स्तुति और निन्दाका तो पार नहीं । अतः उसका मुझपर कुछ असर नहीं होता । फिर भी इस 'बालपोथी 'के मूलमें जो विचार है वह बहुत बड़ा है। शिक्षकको चाहिए कि वह मौखिक शिक्षा दे । शिक्षा पुस्तकों और पाठ्य पुस्तकों द्वारा नहीं दी जा सकती। जिन देशोंमें ढेरकी-ढेर पाठ्य पुस्तकें होती हैं, उन देशोंके बालकोंके दिमागोंमें जाने क्या-क्या कूड़ा भर जाता है । उनके दिमागों में शैतान घुस जाता है और उनकी विचारशक्ति समाप्त हो जाती है । मैंने अपना यह मत असंख्य बालकोंके अनुभवसे और अनेक शिक्षकोंसे बातचीत करके उसके आधारपर बनाया है । मैं दक्षिण आफ्रिकामें आँखें खोलकर घूमता था । वहाँ जब आग भड़की तब भी मैं वहाँ घूमता रहा और मुझे यही अनुभव हुआ । आप दो शालाओंकी तुलना करें। एकमें शिक्षकों के पास पाठ्य पुस्तकें हैं और दूसरी में नहीं। दोनोंके शिक्षकों में सत्त्व तो है । इनमें जिनके पास पाठ्य पुस्तकें नहीं हैं वे जितना ज्ञान बालकोंको दे सकते हैं उतना ज्ञान वे शिक्षक नहीं दे सकते जिनके पास पाठ्य पुस्तकें हैं। मैं बालकों के हाथों में पाठ्य पुस्तकें नहीं देना चाहता । शिक्षक स्वयं उन्हें पढ़ना चाहें तो खुशीसे पढ़ें। हम शिक्षकों के लिए जितनी पुस्तकें लिख सकते हों लिखें। यदि हम बालकोंके लिए पुस्तकें लिखेंगे तो शिक्षक यन्त्रवत् बन जायेंगे। इससे उनकी स्वतन्त्र शोधकी बुद्धि और मौलिकता नष्ट हो जायेगी। मैं शिक्षकोंकी गतिको रोकना नहीं चाहता। मैं तो इतना ही चाहता हूँ कि आप मेरे इस दृष्टिकोणको भी जान लें । पाठ्य पुस्तकों के लेखक अनुभवी हैं। लोगों को जबतक उनकी जरूरत है तबतक वे उन्हें खुशीसे लें। परन्तु मैं किस दृष्टिसे ऐसा कहता हूँ, इसे आप समझ लें । आप पूछेंगे कि क्या आपने शिक्षकका काम किया है ? मेरे विचारके पीछे मेरा पर्याप्त अनुभव है। मैंने शिक्षा के विषयपर काफी सोचा है । मैंने जो दृष्टिकोण रखा है, आप उसके अनुसार सोचकर देखें और अपनी गति कुछ मन्द करें। मेरा मतलब यह है कि यदि गुजरातको लाखों बालकों के लिए पुस्तकें तैयार करनी पड़ें तो गुजरात के

  1. १. देखिए खण्ड २३, पृष्ठ १३२-३८ ।