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भाषण : शिक्षा परिषद् में

पास इतने पैसे नहीं हैं और इस कारण वह परेशान हो जायेगा। दूसरी बात यह है कि बालकोंके दिमागपर पुस्तकोंका बोझ नहीं डाला जाना चाहिए।

यदि मनुष्य अपने मनमें नया विचार आते ही उसपर तुरन्त निछावर हो जाये और उसे संसार के सामने रख दे तो इसमें उसकी और संसारकी दोनोंकी हानि है । परन्तु यदि उस विचारको सँजोकर रखे, उसे प्रयोगमें लाकर देखे, उसका अपने-पर और छात्रोंपर प्रयोग करे, उसकी जाँच-पड़ताल करके भी कुछ दिन उसे अपने पास छोड़ रखे और फिर भी रुका रहे तो इसमें संसारकी कोई हानि नहीं होगी । इसके पक्ष में मेरे पास बड़े-बड़े लोगोंकी मिसालें हैं। विचारको रोक रखनेसे न तो उनकी हानि हुई है और न संसारकी । उन्होंने बादमें अपने विचार बदले भी हैं और नये अनुभव में अपने पुराने विचारोंको उन्होंने भुलाया भी है। इसका एक उदाहरण है उतावले एन्ड्रयूज साहब -- मेरे परम मित्र -- मेरे साथ उठने-बैठने और खाने-पीनेवाले । दस साल पहले वे विचार आते ही झट लिख डालते थे । इन्हें यह लत ही पड़ गई थी। इनके दस बरस पहले जो विचार थे, वे आज नहीं हैं। वे तो धार्मिक मनुष्य हैं, हम भी धार्मिक मनुष्य हैं -- हम जिन विचारोंको प्रकट किये बिना ही साथ लेकर मर जायेंगे वे हमारी आत्माके साथ जायेंगे और किसीन-किसी दिन संसारको जरूर मिलेंगे ।

विद्यापीठ और उससे सम्बद्ध संस्थाएँ किन स्थितियोंमें स्थापित की गई थीं, यदि हम इसपर विचार करें तो अनेक गुत्थियाँ सुलझ जायेंगी। आज हम शिक्षापर शिक्षककी दृष्टिसे विचार कर रहे हैं। शिक्षकका काम शिक्षा देना है और इस दृष्टि से हमें अच्छी से अच्छी शिक्षा देनी चाहिए । परन्तु प्रश्न इतना सहल नहीं है। हम महज शिक्षा देनेके लिए इस विद्यापीठको और इन शालाओंको नहीं चला रहे हैं । हमने असहयोग के सिलसिले में विद्यापीठकी स्थापना की थी। इसका अर्थ यह है कि जो शिक्षक, शिष्य और माता-पिता स्वराज्य के काफिले में शामिल हुए हैं वे स्वराज्यके सेवक हैं और असहयोगी हैं। परन्तु मैं इस समय यहाँ असहयोगका चमत्कार बतानेके लिए नहीं आया हूँ बल्कि आपको राष्ट्रीय शिक्षककी हैसियतसे आपका धर्म बताना चाहता हूँ। हम जिस दिन स्वराज्य के काफिलेमें शामिल हुए हमने उसी दिन यह बात मान ली थी कि असहयोगका सिद्धान्त बिलकुल ठीक है ।

यदि इस सिद्धान्तमें भूल होगी तो उसे कांग्रेस सुधारेगी। हमें फिलहाल यह मानकर ही चलना होगा कि गाड़ी ठीक-ठीक चल रही है। हम यहाँ यह तात्त्विक निर्णय करने के लिए नहीं बैठे हैं कि असहयोग ठीक है या नहीं। मुझे और आपको दोनोंको ही यह मान्य है कि हमारे विद्यापीठ और शालाओंका अस्तित्व स्वराज्यके सिलसिले में है । शिक्षाकी खातिर शिक्षापर विचार स्वराज्य मिलने के बाद करेंगे। हमें आज तो पूर्वोक्त संकुचित दृष्टिसे ही विचार करना है ।

हमें अपनी प्राथमिक शालाओं, विनय मन्दिरों, महाविद्यालयों और पुरातत्त्व मन्दिरों-के संचालनमें भी यही दृष्टि सामने रखनी चाहिए। हमें स्वराज्य और असहयोगके सिद्धान्तका उल्लंघन नहीं करना चाहिए। हमें स्वराज्य प्राप्त करना है । हमने इसके साधन सत्य और अहिंसा निश्चित किये हैं। कांग्रेसके संकल्पमें शान्तिमय और न्यायो-