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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चित शब्दोंका चाहे जो अर्थ होता हो, मेरे नजदीक तो इनका एक ही अर्थ है-- सत्य और अहिंसा । और मैं मानता हूँ कि इनका अर्थ गुजरात भी यही करता है । इसके अलावा हमने पंचविध बहिष्कार भी स्वीकार किया है। यदि हम इसे छोड़ दें तो हमारी प्रतिज्ञाका पालन नहीं होता । यदि दालकोंके सदाचारकी जिम्मेदारी हमारी है तो हम बहिष्कारको छोड़कर उन्हें गलत पदार्थपाठ ही देंगे। जिन्हें इनपर श्रद्धा न हो वे इन संस्थाओंसे हट जायें। उदरपोषण तो सबके पीछे लगा हुआ है; परन्तु यह हमारा प्रधान हेतु नहीं है । जिन्हें असहयोगकी तमाम शर्तें मंजूर न हों उन्हें इनसे हट जाना चाहिए। केवल उदरपोषणको दृष्टिमें रखकर राष्ट्रीय शालाओं में प्रवेश करना न तो शिक्षकोंको शोभा देता है और न विद्यार्थियोंको ।

हमारी लड़ाईके दो अंग हैं। इनमें से एक ध्वंसात्मक है और उस अंगको हम पूरा कर चुके हैं। यदि हम अब भी यही काम करते रहे तो हमारा यह काम किसी अनाड़ी किसान के कामकी तरह होगा । किसान बीजकी बुआई करनेके पहले घास और कंकर पत्थर निकालकर जमीनको जोतता और समतल करता है । यदि वह इतना कर लेनेपर भी जमीनको उलटता-पुलटता ही रहे तो वह व्यर्थका कालक्षेप ही होगा । उसी प्रकार परिणाम देखे बिना दूसरे खेतमें प्रयोग करे तो यह भी ठीक नहीं है। इसी तरह यदि एक छोड़कर चला जाये और उसकी जगह दूसरा आ बैठे तो यह भी ठीक नहीं है। उसे तो वहाँ स्थायी रहकर काम करना चाहिए । यदि वह इस कामको करता हुआ धीरज रखे तो उसका खेत खुद बखुद तैयार हो जायेगा । हमारा ध्वंसात्मक काम पूरा हो चुका है। अब रचनात्मक-स्थायी-काम करना बाकी रहा है । यह रचनात्मक काम बहिष्कारका पोषक है । हम जिस कामको कर रहे हैं यदि संसार उसकी स्तुति करे और उसे अपना ले तो दूसरी शालाएँ खुद-बखुद बन्द हो जायेंगी । सब लोग इस बातको मानते हैं कि दूसरी शालाओंमें आत्मा नहीं है और कहते हैं कि इनके स्थानमें कुछ दूसरी तरहकी चीज रखी जानी चाहिए । हमें यदि अपने काममें अटल श्रद्धा हो तो फिर उसकी सिद्धिमें चाहे एक साल लगे, चाहे बीस साल, हमें तो इसीमें लगे रहना है।

हमारा स्थायी काम यह है कि हम शालाओंकी स्थापना करें। शिक्षक पंचायतों और अदालतोंको भूल जायें। हमें इन सबका विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। हम तो बस उतना ही विचार करें जितनी हमपर जिम्मेवारी है; बस हम इतनेसे ही संसारको जीत लेंगे। हमारी दूसरी जिम्मेवारी है शालाओंकी प्रतिष्ठा बढ़ानेकी । हमने अबतक विस्तार तो बहुत किया। अब इस विस्तारमें से चुनाव करनेकी जरूरत है। आप लोगोंमें जो किसान होंगे वे इस बातको समझ जायेंगे। किसान बोये हुए पौधों में से खराब, पीले और बेजान पौधोंको उखाड़ फेंकता है। गेहूँ पकनेपर अच्छेसे-अच्छा बीज अगले सालके लिए रख लेता है और हर साल इसी तरह करते हुए बढ़िया फसल तैयार करता है । हमारा विस्तार-कार्य पूरा हो चुका। अब हमें शक्ति और गुण बढ़ानेका काम हाथमें लेना चाहिए ।

दूसरा काम है चरखा-प्रचार और अस्पृश्यता निवारणका, और तीसरा है हिन्दू-मुस्लिम ऐक्यका । हाँ, गुजरातमें हिन्दू-मुस्लिम समस्या उतनी जटिल नहीं है, परन्तु