भी हम अस्पृश्य बने हुए हैं। इन सभी देशोंमें हमें अंग्रेजोंके स्थानोंमें घुसने की मनाही है । अंग्रेजोंने यह बात यहीं आकर सीखी है। उन्होंने देखा कि "यहाँ कुछ विचित्र-सा धर्म है, एक मनुष्यको छूकर दूसरा मनुष्य अपवित्र हो जाता है, एक मनुष्य दूसरेकी छाया तकसे बचता है । हमें भी ऐसे ही चलना चाहिए, नहीं तो हम खतरेमें पड़ जायेंगे ।" ऐसा मानकर उन्होंने अपना घेरा तैयार किया। इसमें इनका कोई दोष है; मुझे ऐसा तनिक भी महसूस नहीं होता। हमने ही उन्हें अस्पृश्यता सिखाई है ।
आपमें यदि मानसिक बल होगा तो आप चरखा भी लेकर बैठ जायेंगे और ऐसे बालकोंको खोज निकालेंगे जिन्हें आप ये दोनों काम सिखा सकें । इन दो कामोंमें आप उन्हें लवलीन कर सकेंगे। यदि आप इन दोनों कामोंको कर सकें तो आपके लिए इतना बहुत है । आप अन्य कामोंकी चिन्ता न करें। अन्य सब चीजोंको ईश्वर-पर छोड़ दें। यदि आपमें बल होगा तो आपका रास्ता साफ है ।
यदि ऐसा करते हुए आजीविका जोखिममें पड़ गई तो ? आजीविका जोखिममें न पड़े, ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेके लिए ही तो हम स्वराज्यका आन्दोलन चला रहे हैं । यह आन्दोलन तभी सफल हुआ माना जायेगा जब सैकड़ों, हजारों और लाखों बालक और बालिकाएँ आजीविका सम्बन्धी चिन्ता त्याग देंगे और उसकी ओरसे उदासीन हो जायेंगे। सभी स्वतन्त्र देशोंमें लड़के और लड़कियाँ अपने-अपने कर्त्तव्यका पालन करते समय आजीविकाका खयाल तक मनमें नहीं लाते । आजीविकाके लिए जितनी 'हाय-हाय' यहाँ है उतनी और किसी देशमें नहीं है । हिन्दुस्तानका यह दावा है कि वह आध्यात्मिक प्रवृत्तियोंको प्रधानता देता है। जो देश इस प्रकारका दावा करता है वह मौत और आजीविकाके सम्बन्धमें जितना भयभीत है उतना दूसरा और कोई देश नहीं है। मैं ऐसी बातें इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरे शरीरका अणु-अणु हिन्दू है । हमें आजीविकाका भय क्यों होना चाहिए ? आजीविका के लिए बुनाईका काम तो हमारे पास है ही । यदि वह न हो तो हम लकड़ियाँ काटेंगे, पत्थर तोड़ेंगे और ढोयेंगे । यदि हम इससे भी आगे बढ़ें और पाखानेकी सफाई करनेका पवित्र काम करें तो उससे हमें जरूरतके लायक अर्थात् १५-२० रुपये तो मिल ही जायेंगे; और इतना ही नहीं बल्कि लोग हमारी खुशामद भी करेंगे । इसलिए देखा जाये तो हमारे सामने आजीविकाका सचमुच कोई प्रश्न है ही नहीं। जो स्वराज्य की कामना करते हैं और उसके लिए व्यग्र हैं, जो ऐसा मानते हैं कि इस यज्ञमें हमें आहुति देनी चाहिए, उन्हें चाहिए कि वे आजीविकाकी बात भूल ही जायें। और यदि इसके बाद भी भूखों मरनेकी नौबत आ जाये तो ? हम माँ-बाप, स्त्री और अन्य परिजनोंके लिए अन्न न जुटा पायें तो ? जगत्को खिलाने के बाद स्वयं खाना यह महान् धर्म है । इसलिए धर्मका आचरण करते हुए हमें जितने कष्ट उठाने पड़ें, हम अवश्य उठायें। 'महाभारत' के रचयिताने पुरुषार्थ प्रधान है या प्रारब्ध प्रधान, इस प्रश्नका विवेचन किया है; लेकिन वे निश्चय नहीं कर पाये हैं कि इनमें से प्रधान क्या है ? देखते हैं कि प्रारब्ध सदा हमसे दो कदम आगे ही आगे चलता है । हमारा धर्म तो केवल इतना ही है कि हम अधिक से अधिक मेहनत करें । मैं बहनका विवाह करूँगा, हममें इतना भी कहने का