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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय}

सत्याग्रहका हेतु पूर्णतः शुद्ध होना चाहिए। जब पोरबन्दरमें भावनगर परिषद्क करनेकी सिफारिश की गई तब थोड़ी-बहुत अविनय तो अवश्य हो गई। जो कुछ हुआ है उसके सम्बन्धमें मैंने बहुत ही नरम शब्द “अविनय" का प्रयोग किया है। सत्याग्रहका यह अनिवार्य नियम ही है कि सत्याग्रही का “केस" दूधकी तरह निर्मल होना चाहिए। जिस प्रकार थोड़ा भी दूषित हो जाने पर दूध अग्राह्य हो जाता है उसी प्रकार किंचित् दोषमय सत्याग्रह भी त्याज्य है। इस कारण कठोर विशेषणका प्रयोग जरूरी ही नहीं था।

दूसरा कारण भी इतना ही सबल है। मुझे यह मालूम ही न था कि कार्यकर्ता [सत्ताकी कुछ] शर्ते कबूल करके परिषद् करना चाहते हैं। मैं यह कितनी ही बार कह चुका हूँ कि मैं ऐसे कामोंमें शर्ते कबूल करने के खिलाफ हूँ। एकाध बार परिस्थितिवश शर्ते कबूल करना आवश्यक हो जाये तो अलग बात है। परन्तु जहाँ एक बार शर्ते कबूल करनेकी नीति मान ली गई वहाँ वह बात सत्याग्रहका विषय नहीं रहती। यदि शर्तोंपर परिषद् बुलाना कबूल करें तो फिर सोनगढ़में परिषद् करनेकी बात क्यों न मानें। शर्त कबूल करने में हेतु यह था कि अभी जन-जीवन दूसरी तरहसे जाग्रत नहीं हो सकता। यह हेतु निरर्थक या दोषयुक्त नहीं है। दूसरी जगह परिषद् करने में भी हेतु तो यही होता। यह कोई नियम नहीं है कि सत्याग्रह करें तो परिषद् होनी ही चाहिए। सत्याग्रही तो मरते दमतक लड़ता है। सत्याग्रहमें यह विचार गृहीत है कि सत्याग्रहीके लड़ते-लड़ते मर जानेमें उसकी विजय ही है। यदि सत्याग्रही सत्याग्रह करते हुए जेल भेज दिया जाता है तो समझिए कि उसने अपना काम पूरा कर लिया। परन्तु उन्हें लगा कि परिषद् तो नहीं हुई और इस समय हेतु यही था कि चाहे जैसे हो परिषद्तो की ही जानी चाहिए। परिषद् अपनी शर्तोंपर बुलाई जा सके तो ठीक, अन्यथा नहीं। सत्याग्रहकी भावना तो यही है। येन केन प्रकारेण परिषद् करना सत्याग्रहकी भावना नहीं हो सकती। लोग सरकारके मनका स्वराज्य पानेके लिए सत्याग्रहकी तैयारी नहीं कर रहे हैं। वे तो अपने मनका स्वराज्य लेने के लिए प्रचंड शक्तिका संचय कर रहे हैं। बिना शर्त परिषद् करनेका निश्चय कर लेनेपर ही काठियावाड़के सम्मुख सत्याग्रह करनेका कर्तव्य उपस्थित होगा। शर्त के साथ परिषद् करना सत्याग्रहियोंका कर्तव्य नहीं है। यह तो पैसेके बदले कौड़ी लेनेके समान हुआ।

इसका अर्थ यह नहीं है कि शर्त न हो तो सत्याग्रहीको गालियाँ देनेका इजारा ही मिल गया। वह सत्याग्रही क्या जो नम्रता और विनयको छोड़ दे। वह खुद अपनी मर्यादाको जानता है अतः वह दूसरोंकी मर्यादाको माननेसे इनकार नहीं करता। किन्तु वह खुद अपनी मर्यादा आँकनेमें बड़ी सख्तीसे काम लेता है।

यदि परिषद्का काम इस साल शुद्ध विनयके साथ सम्पन्न हो और विरोधियोंको भी ‘वाह-वाह' करनी पड़े; फिर भी यदि अगले वर्ष शर्तों के रूपमें अथवा दूसरे रूपमें विघ्न आयें तो सत्याग्रहियोंका “केस" इतना शुद्ध और मजबूत हो जाता है कि उसके खिलाफ कोई कुछ कह नहीं सकता। यदि उस समय कोई सत्याग्रह करना चाहेगा तो उसे रण-भूमि तैयार मिलेगी।