पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५
उतावला काठियावाड़

परन्तु “आजका सारा जोश ठंडा पड़ गया तो फिर सत्याग्रही कहाँसे आयेंगे?" ऐसा कहनेवाले भले और भोले काठियावाड़ी आज भी दिखाई देते हैं। उन्हें जानना चाहिए कि सत्याग्रह भाँगका नशा नहीं है। सत्याग्रह मनकी तरंग नहीं है। सत्याग्रह तो अन्तर्नाद है। वह समय बीतने से मन्द नहीं पड़ता, बल्कि तीव्र होता है। जो दब सके सो अन्तर्नाद नहीं, उसका आभास-मात्र है। उसको मृगजलकी तरह समझना चाहिए। सत्याग्रही उसीको कह सकते हैं जो अगले साल भी कटिबद्ध मिले। काठियावाड़की भूमिमें तो राजपूत और काठी लोग जन्मभर खेतोंके लिए लड़े हैं। वरडाके बाघ, रमूलु माणिक और जोधा माणिकने सारी एजेन्सीको कँपा दिया था। उनका जोश एक क्षणमें उमड़ता और एक क्षणमें ठण्डा नहीं होता था। मोर-जैसा डाकू बरसोंतक अकेला लड़ा। किन्तु ये सब तुच्छ स्वार्थके लिए लड़े थे। फिर काठियावाड़की सारी प्रजाके कष्टोंका भार उठानेवाले सत्याग्नहियोंके शान्त और निर्मल आग्रहका माप कितना अधिक होना चाहिए, इसका उत्तर आक्षेपकर्त्ताओंको त्रैराशिक गणित लगाकर वे खुद ही दें।

परन्तु यह भी कहा जा रहा है, “पट्टणीजीका हुक्म तो देखिए, उन्होंने जरा-सी कलम हिलाकर अपने मनमाने कानूनमें दस-बीस नये जुर्म जोड़ दिये हैं। और फिर इन कृत्रिम अपराधोंके लिए छः-छ: महीनेकी सजाएँ। इस प्रकार ‘जादूके आम' जैसे कानून तो सरकार भी न बना पाती। ऐसा घोर जुल्म होते हुए भी सत्याग्रह न करना और सोनगढ़में परिषद् करना कहाँका न्याय है? इस कथनमें जो दोष है सो भी स्पष्ट हैं। यदि हमें इस कानूनके खिलाफ सत्याग्रह करना हो तो यह कानून अवश्य सत्याग्रह करने के लायक है। परन्तु हम तो परिषद्के सम्बन्धमें सत्याग्रह करनेकी बात कर रहे हैं। यदि परिषद् करने के अपराधमें फाँसीका हुक्म भी दिया जाये तो सत्याग्रही उससे तनिक भी भयभीत होनेवाला नहीं है। ऐसा हुक्म निकालनेवाला अवश्य लज्जित होगा। यदि पूर्वोक्त हुक्म देनेपर पट्टणीजीकी निन्दा करने के लिए कोई संस्था बनाई जाये और यदि केवल सत्याग्रहके अनुकूल गालियाँ देनेका नियम रखा जाये तो उसमें अपना नाम मैं भी लिखाऊँगा। मैं यह जरूर मानता हूँ कि यह हुक्म बेहूदा है। यदि भावनगरके फौजदारी कानूनमें परिषद् करना जुर्म न हो तो उन्हें उचित था कि वे अपनी नौकरी गँवाकर भी परिषद् होने देते। परन्तु ऐसे मनमाने कानून बनाना अकेले पट्टणीजीकी ही खासियत नहीं है। यह चीज तो काठियावाड़के वातावरणमें ही मौजूद है। हम यह चाहते हैं कि पट्टणीजी इस वातावरणसे ऊँचे उठे। परन्तु हम इस समय पट्टणीजीकी नीतिके चौकीदार नहीं हैं। जब काठियावाड़की ऊँची भूमिपर शुद्ध सत्याग्रहियोंकी फसल लहलहायेगी तब पट्टणीजी-जैसे लोगोंके आसपासका अत्याचारमय वातावरण गायब हो जायेगा। यदि उस समय वे भी सत्याग्रही हो जायें तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।

यदि पट्टणीजी तथा खुद राजा लोग हीनतापूर्ण वातावरणमें न रहते हों तो वे पूर्वोक्त प्रकारका हुक्म ही न दे सकें। परिषदें करना प्रजाका हक होना ही चाहिए।

१ व २. प्रसिद्ध बागी सरदार; इन्होंने ब्रिटिश राज्यकी स्थापनाका विरोध किया था।

३. पश्चिम भारत रियासती एजेन्सी, राजकोट।

४. मोवर; देखिए "पत्र : महादेव देसाईको", १२-५-१९२४।