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कारखाने में दुर्घटना

जाये ? ईश्वर कोई ऐसी क्रूर सत्ता नहीं है जो नीरोकी तरह अपने मनोरंजनकी खातिर प्राणियोंको पीड़ित करे। पहले तो उन्हें संसारमें भेजे और फिर उनका हनन करे। परमात्माकी प्रत्येक कृतिमें कुछ-न-कुछ युक्ति जरूर रहा करती है ।

परन्तु क्या हम इस तरह तत्त्व-ज्ञानकी बातें बघारते हुए हाथपर-हाथ धरे बैठे रहें? कदापि नहीं । हम स्वयं अवश्य ही प्रसन्नतापूर्वक मृत्युका आलिंगन करें । दूसरोंको पीड़ासे मुक्त करनेका उपाय मौतका भय त्यागकर ही खोजा जा सकता है । जो बात दूसरेके लिए सच है वहीं हमारे लिए भी । हमें यह मान बैठने का अधिकार नहीं है कि चूंकि मौत मित्र है इसलिए भले ही कल मरनेवाले आज मर जायें । यमराजकी गति न्यारी है। यदि हमें मौतकी घड़ीका निश्चय हो तो हम कष्ट ही न भोंगे और न किसीको मदद देने की जरूरत ही रहे। परन्तु वह कब आयेगी इसका पता हमें नहीं रहता, इसीसे हम दुःख भोगते हैं । हम ज्ञानी नहीं हैं; यदि फिर भी हम अपनेको ज्ञानी मानकर चलें तो हमारी अधोगति होगी । हम तत्त्व-ज्ञान सम्बन्धी विचार मनमें लाकर शान्त भले रहें; परन्तु हमें एक-दूसरेकी सहायता करना कदापि नहीं भूलना चाहिए। इसे न भूलनेमें ही मौतसे भेंट करनेकी तैयारी निहित है ।

अहमदाबादकी दुर्घटनाके सम्बन्धमें तो हम यह मान लें कि कारखानेके मालिक मृत व्यक्तियोंके सगे-सम्बन्धियोंको अवश्य ही मदद पहुँचायेंगे । यह उनका विशेष धर्म है । परन्तु यह दुर्घटना हुई कैसे ? आजकलकी इमारतें कम मजबूत पाई जाती हैं । ठेकेदार और कारीगर सभी बहुत धोखेबाजी करते हैं । वे सीमेंटमें [ अनुपातसे अधिक ] रेत मिला देते हैं । कई बार इतनी कच्ची ईंटें भी लगा दी जाती हैं कि वे मिट्टी हो जायें। ठीक मजबूत लकड़ीकी बजाय कमजोर लकड़ीका उपयोग और चूनेकी जगह् गारेका उपयोग कर डालते हैं । कितनी ही बार इंजीनियर मालिकोंको खुश करनेके लिए कमसे कम मजबूतीसे काम चला लेते हैं । इसीलिए बम्बई में कितनी ही इमारतें गिर चुकी हैं और लोग दबकर मर चुके हैं। मुझे आशा है कि मिल-मालिक इमा-रतकी बनावटके बारेमें पूरी तहकीकात कराके दुर्घटनाके अधिकृत कारण प्रकाशित करेंगे और नगरवासियोंका समाधान करेंगे। हम यह आशा भी रखते हैं कि मालिक दूसरी इमारतोंकी जाँच भी करा लेंगे और उनमें उन्हें जहाँ कहीं कमजोरी दिखाई दे वहाँ मरम्मत करा लेंगे ।

मलाबारमें जो संकट उपस्थित हुआ है वह तो मानो समुद्रमें आग ही लग गई है। उसका मुकाबला करना किसी खानगी संस्थाके बसके बाहर है। यह नहीं समझना चाहिए कि यदि कांग्रेसके लोग ऐसे समय में उस संस्थाको, जो उनकी मदद कर रही है और उनका दुःख निवारण कर रही है, अपनी सेवाएँ देंगे तो उससे असहयोग के सिद्धान्तमें बाधा पड़ेगी। यदि हमारे पास अखूट धनराशि हो तब हमें जरूर अलहदा महकमा खोलकर उनकी सहायता करनी चाहिए। परन्तु जहाँ लाखों रुपयोंसे भी काम नहीं बन सकता वहाँ बेचारी कांग्रेस क्या कर सकती है ? अतः यदि सरकार कुछ सहायता करे और उसमें हमारी सेवाएँ उसे मंजूर हों तो हमें अपनी सेवाएँ उसे अवश्य देनी चाहिए ।

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