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करनेका ही साधन है, जो लोग ऐसा मानते हैं, वे भारी भूल करते हैं। सत्याग्रहका उद्देश्य आत्मशुद्धि है। हमारे कर्त्तव्य पालनसे सरकारको जो परेशानी होती है सो तो अनिवार्य है; लेकिन हमारा उद्देश्य परेशान करना नहीं होता । यदि शराब पीनेवाले लोग शराब पीना छोड़ दें तो इससे शराब के दूकानदारको अवश्य कष्ट होगा; लेकिन इसमें शराब छोड़नेवालोंका उद्देश्य दुकानदारको कष्ट देना नहीं है । उसका उद्देश्य तो शराबके दूकानदारको सुधारना हो सकता है। इसके अतिरिक्त जो लोग सत्याग्रह आन्दोलन में शामिल नहीं होते उनका बहिष्कार करना भी अनुचित है, इसमें कोई सन्देह नहीं । इससे लड़ाईका रूप बिगड़ता है, सुधरता नहीं । सत्याग्रहीको अपने सत्य-पर अर्थात् अपनी दुःख सहन करनेकी शक्ति अथवा तपश्चर्यापर विश्वास रखना चाहिए। यदि दूसरे वैसा नहीं करते तो उसे इस सम्बन्ध में निश्चिन्त रहना चाहिए । जो इस लड़ाई में शामिल नहीं होते वे अविश्वास अथवा अशक्तिके कारण ही शामिल नहीं होते । अविश्वास अनुभवसे ही दूर होता है । शक्ति दूसरोंकी शक्ति देखकर आती है । दोनोंमें से किसी भी स्थितिमें जबरदस्ती करना उचित नहीं है ।

गुजरातके असहयोगियोंसे

असहयोगी सहयोगियों का प्रीति-सम्पादन नहीं कर सकें तो इसमें दोष असहयोगियोंका ही है, यह बात मैंने बहुत बार स्वीकार की है। लेकिन इससे सहयोगियों अथवा असहयोगियोंको देशकी स्थिति बिगाड़नेका अधिकार नहीं मिल जाता । १९२२ के आरम्भ में अनेक सहयोगी खादीका काम करनेके लिए तैयार हो गये थे । उनमें से बहुतसे यह मानने लगे थे कि खादीसे देशकी आर्थिक स्थिति अवश्य सुधारी जा सकती है। बादमें यह बात वहीं की वहीं रह गई। अब जबकि चरखेकी प्रवृत्तिको फिर तेजीसे चलानेका प्रयत्न किया जा रहा है, में एक बार फिर सहयोगियोंसे मदद माँगनेकी धृष्टता करता हूँ । भिखारीको लज्जा किस बातकी ? उनका देशके प्रति क्या धर्म है, इस बारेमें सहयोगियों और असहयोगियोंके विचार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं । हिन्दू एक तरहसे मोक्ष प्राप्त करनेका यत्न करता है तो मुसलमान दूसरी तरह-से। इसमें दोनोंके परस्पर लड़नेका कोई प्रयोजन नहीं, दोनों अपनी-अपनी दृष्टिसे सच्चे हैं। लेकिन दोनों परस्पर एक-दूसरेको सहन करें, इसी में हमारी राजनीतिक मुक्ति है -- हम ऐसा मानते हैं ।

इसी तरह सहयोगियों और असहयोगियोंको अपनी-अपनी दृष्टिसे कार्य करते हुए परस्पर एक-दूसरेको सहन करना चाहिए। जहाँ दोनोंके विचार मेल खाते हों वहाँ दोनों साथ मिलकर काम क्यों न करें ? कुछ लोग यह कहते सुने गये है कि जबतक गांधी चरखेको असहयोगका अपना साधन मानता है तबतक सहयोगी उसके प्रचारमें कदापि सहायता नहीं करेंगे। ऐसा किस लिए? में चरखेमें राम अथवा धर्म देखता हूँ इसीसे क्या दूसरे लोगोंको जो चरखेमें मात्र-सूत अर्थात् अर्थ ही देखते हैं, उसका त्याग कर देना चाहिए। चरखा अपने-आप न तो रामका बोधक है और न सूतका । उसे चलानेवाला सूत कात सकता है और रामको देख सकता है । उसमें मेरे-जैसे लोग असहयोगकी भावना आरोपित करते हैं। लेकिन यदि चरखेका प्रचार