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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सर्वत्र हो जाये तो असहयोगकी आवश्यकता ही नहीं बच रहेगी, यह कहनेवाला व्यक्ति भी सिर्फ मैं ही हूँ । क्या सहयोगी ऐसा करनेमें मेरी मदद न करेंगे ?

लेकिन सारा भार असहयोगियोंके कन्धोंपर ही है । असहयोगियोंके दोषसे ही सहयोगियों और असहयोगियोंके बीच खाई पड़ गई है। इसे मिटानेका प्रयत्न भी हमें ही करना चाहिए। इस दृष्टिसे मैंने सहयोगियोंसे यह प्रार्थना करनी शुरू की है, और अब असहयोगियोंको सलाह देता हूँ कि वे अपने सम्पर्क में आनेवाले सहयोगियोंसे विनती करें और उन्हें सूत कातनेके लिए आमन्त्रित करें। उन्हें सूत कातना न आता हो तो वे उन्हें सिखायें। सूत कातना केवल कांग्रेस में भरती होनेवालोंका ही धर्म हो, ऐसी बात नहीं है । यह तो भारतीय मात्रका धर्म है। इसलिए हम सहयोगियोंसे प्रेम-पूर्वक विनती करें। वे हमारी बात न सुनें तो हम इससे दुःखित न हों। हम प्रसंग आनेपर उनसे फिर विनती करें और विश्वास रखें कि चरखेमें जो शक्ति मानी गई है वह उसमें अवश्य होगी और यदि हम रोषमुक्त हो जायें तो सहयोगी चरखेको अवश्य अपनायेंगे ।

होशियार शिक्षक

यह बोटाद की अन्त्यज-शाला के शिक्षकका पत्र[१] है । यदि इस शालाके समान ही सब शालाएँ चलें तो कितना अच्छा हो ?

सुधार

रंगूनसे एक भाई लिखते हैं :

'दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रह के इतिहास' में[२] आपने स्व० सेठ अहमद मुहम्मद काछलियाका परिचय सूरत के मेमन मुसलमानके रूपमें दिया है । यह ठीक नहीं है । वे सूरत जिलेके सुन्नी बोहरा थे । आपको उनका परिचय इसी रूपमें देना था ।

मैं जानता था कि भाई अहमद मुहम्मद काछलिया सुन्नी सम्प्रदाय के थे, लेकिन दक्षिण आफ्रिकामें सूरतकी ओरके सुन्नी बोहरा सूरती मेमनके नामसे जाने जाते हैं; इसलिए मैंने उनका परिचय वैसा ही दिया है ।

बुनाईसे कमाई

एक भाई लिखते हैं :[३]

यह भाई चाहते हैं कि उन्होंने जो कहा है मैं उसकी लिखकर ताईद करूँ । मैं इनसे सहमत भी हूँ, किन्तु मैं यह मानता हूँ कि यदि सूत एक समान हो तो इससे प्रतिमास दस रुपये से भी अधिककी कमाई हो जाती है । मेरी कल्पना तो यह है कि यदि होशियार अर्थात् पढ़ा-लिखा और मेहनती बुनकर सूत कतवाये, खरीदे और बुने तो उसे इससे अवश्य ही ज्यादा आय होगी । तथापि इतना तो निश्चित

  1. १. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है ।
  2. २. यह लेख-माला अप्रैल १९२४ से नवम्बर १९२५ तक नवजीवनमें प्रकाशित हुई थी।
  3. ३. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है।