२७८. पत्र : वा० गो० देसाईको
श्रावण सुदी ४ [४ अगस्त, १९२४][१]
आपका पत्र मिला । महादेवका कहना है कि स्वामीने आपका शिमला सम्बन्धी लेख तुरन्त वापस भेज दिया था। पता नहीं वह आपको क्यों नहीं मिला। स्वामीसे पूछूंगा। मैं अगर शिमला आ सका तो और कुछ नहीं तो कमसे-कम आपसे और पण्डितजी[२] से मिलनेके लिए ही आ जाऊँगा । श्रीनगर जानेकी तो बड़ी इच्छा होती है; परन्तु यदि 'मनुष्यके ही हाथकी बात हो तो कोई दुःखी न हो' आदि । क्या मैंने आपको यह नहीं लिखा कि मैंने 'तल्लीन' शब्दके प्रयोगके सम्बन्धमें जो क्षमा-याचना[३] की थी उसपर आनन्दशंकर भाईने मुझे मधुर पत्र लिखते हुए सूचित किया कि मेरा वह प्रयोग सही था ? इस प्रकार जिस शब्दके प्रयोगसे अर्थकी पुनरुक्ति हो जाती है उसका प्रयोग भी होता है । तथापि मैं 'आवकारदायक' शब्दको सुधार लूंगा । आयुर्वेद के अवतरणोंका उपयोग भी करूँगा। मुझे बुखार बिल्कुल नही हैं ।
मोहनदासके वन्देमातरम्
स्टलिंग कैसिल,
शिमला
- मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू ० ६०२०) की फोटो नकलसे ।
- सौजन्य : वा० गो० देसाई