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है तो आर्थिक सहायता भी अपने उद्देश्य में असफल हो जायगी। यदि आपके वक्तव्योंका सही अर्थ लगाया जाये तो उनका आशय यह निकलता है कि चरखा आन्दोलनका लक्ष्य, जहाँतक कपड़ेका सम्बन्ध है, गाँवोंको आत्मनिर्भर बनाना है; अर्थात् घर-घरमें अपने लिए स्वयं सूत काता जाना चाहिए। किन्तु क्या यह कहा जा सकता है कि उत्पादनको इस दृष्टिसे बढ़ावा दिया जा रहा है। कितने गाँव आत्मनिर्भर बन गये हैं या बननेवाले हैं ?

जैसा कि आपने कहा है, यदि खादीका अन्तर्प्रान्तीय व्यापार वांछनीय नहीं है तो खादीको शहरों में संग्रह करके रखना भी उतना ही अवांछनीय है और यह इसलिए कि खादीके अपेक्षाकृत महँगे होनेके कारण उसका बिक्री व्यवसाय आर्थिक वृष्टिसे लाभदायक नहीं है। इसकी बिक्री लोगोंकी भावनाको जगाकर ही की जा सकती है, किन्तु हमेशा यही मार्ग अपनाना उचित नहीं है ।

खादी देखनेमें ही महँगी लगती है । मैं इन स्तम्भोंनें लिख चुका हूँ कि खादी मूल्य की नापके आधारपर अन्य कपड़ोंके मूल्यके साथ तुलना करना सही नहीं है। रुचि में क्रान्तिकारी परिर्तवन किये बिना खादी सस्ती नहीं जान पड़ेगी। खादी पहनने से यह परम्परागत विचार चला जाता है कि वस्त्र सजधजके लिए पहने जाते हैं और यह विचार ही दृढ़ बन जाता है कि वस्त्र उपयोगके लिए पहने जाने चाहिए। खादी कम मजबूत होती है इसके बारेमें मतभेद है। इस मतभेदका आधार कदाचित् यह है कि अलग-अलग लोगोंको अलग-अलग अनुभव हुआ है। जबतक हमारा काता हुआ सूत एकसार नहीं होता तबतक विभिन्न अनुभव होते ही रहेंगे । चार वर्षका प्रयत्न, सो भी ढीला-ढाला, हाथ-कते सूतको एक विशेष स्तरपर लाने के लिए निश्चित ही काफी नहीं है। प्रत्येक नये उद्योगको प्रारम्भ में संघर्ष करना ही पड़ता है । गम्भीर प्रकृति के होनेके कारण उक्त सज्जन भावनाकी उपेक्षा करते हैं; किन्तु भावना संसारमें एक अत्यन्त शक्तिशाली तत्त्व है । हम अपने घरोंमें भोजन इसलिए नहीं बनाते कि आधुनिक अर्थ-विज्ञानके अनुसार वह सस्ता पड़ता है, बल्कि इसलिए बनाते हैं कि उसके पीछे एक युगों पुरानी भावना है । यहाँतक कि अर्थ शास्त्र के अध्येता छात्र भी बता सकते हैं कि यदि आप लागत परिश्रम, ईंधन, बर्तनोंकी घिसाई तथा जगहका किराया सब मिलाकर देखें तो होटलका खाना घरके खानेसे सस्ता पड़ता है । इस समय खादीको आर्थिक सहायता देना आवश्यक है । आचार्य रायने अपनी हालकी विज्ञप्ति में उचित ही कहा है कि जो काम राज्य नहीं करता वह जनताकी देश-भक्ति की भावनाकी सहायता से किया जाना चाहिए। खादी आन्दोलनके उद्देश्यको लेखकने सही रूपमें निरूपित किया है और उस उद्देश्यकी पूर्ति पूर्णरूपमें तभी हो सकती है जब हम जनताकी सेवा करनेके आकांक्षी लोग चरखेकी आवश्यकताका अनुभव करें और चरखेमें तथा उसके द्वारा होनेवाले उत्पादनमें रुचि पैदा करें। यदि मैं उड़ीसाके कंकालोंके बीच ले जाकर चरखा डाल दूं तो वे उसकी ओर नजर भी नहीं डालेंगे। किन्तु यदि मैं उनके बीचमें बैठकर चरखा चलाना शुरु कर दूं तो वे उसे उसी प्रकार अपना लेंगे जिस प्रकार मछली पानीको अपना लेती है। बड़े