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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पहले व्यक्तिको क्षणिक वस्तुका मोह है वहाँ दूसरेको देशके प्रति प्रेम है और देश तो क्षणिक वस्तु नहीं । यदि हम स्वराज्य तलवारसे लें तो हमें उसे कायम रखने के लिए तलवार रखने की ही जरूरत होगी । यह दुनियाका नियम है। इसलिए जबतक देश है तबतक चरखा भी है ही, इस दृष्टिमें निर्मलता है; मोह नहीं । अब रही तीसरी बात । हम खुद अपने ही लिए चरखा क्यों न कातें ? हम बलिदान और त्यागकी जो बातें करते हैं वह तो संसारकी आँख में धूल झोंकना है । हमारा त्याग, त्याग नहीं है -- वह तो विलास है । उसमें हमारी इच्छाको सन्तुष्ट करनेका स्वार्थ रहता है और 'देशके लिए' का अर्थ है स्वयं अपने लिए। अगर हम अपने लिए चरखा कातने को तैयार होंगे तो फिर उसे हम ठीक वैसे ही नहीं छोड़ सकेंगे, जैसे हम खाना, पीना और अन्य शारीरिक धर्मो को नहीं छोड़ सकते । परन्तु ये तीनों दृष्टियाँ उन-उन मनुष्योंके अपने दृष्टि-बिन्दुसे सच्ची हैं ।

जा विधि आवे ता विधि रहिए । जैसे तैसे हरिको लहिए ॥[१]

इसमें अखा भगतने जीवन-कर्त्तव्य सूचित कर दिया है। चरखा मुझे धोखा देनेके लिए नहीं, देशको धोखा देनेके लिए भी नहीं और न दूसरोंको धोखा देनेके लिए ही है, बल्कि काता तो अपने सन्तोषके लिए ही जाना चाहिए। जबतक हम लोग ढोंग-ढकोसलेसे बचकर काम करेंगे तभीतक हमारे कामकी प्रतिष्ठा होगी । शुद्ध ज्ञान जितना ही अधिक होगा, मोह उतना ही कम होगा। फिर भी मोह या प्रेमके वश- वर्ती होकर अच्छा काम करने से भी लाभ ही होता है । पुत्रके हृदय में पिता के प्रति मोह रहता है । मैंने जो सच बोलना सीखा उसमें मेरे पिताका कुछ हिस्सा है । उस समय मुझे इतना ज्ञान न था कि सच बोलना ही अच्छी बात है । परन्तु यह मोह मुझमें जरूर था कि मुझे अपने पिताके लिए कमसे कम इतना तो करना चाहिए। मैंने माता के प्रेमके कारण माँस छोड़ा। मैं माता के प्रेमके कारण ही व्यभिचारमें फँसते- फँसते बचा । नहीं तो आज मैं दुनिया में एक बहुत ही अधम व्यक्ति होता । इस प्रकार मैं मोहके वश होकर ऊँचा उठा परन्तु ऊँचा उठा, यह भी कौन कह सकता है ? मैं तो वास्तव में गिरते-गिरते बचा हूँ। मैं माता और पिताके प्रेमके वशवर्ती और व्रतके वशवर्ती होकर बचा हूँ । व्रत तो जिन्दगी में मेरा सहारा है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य शुभ कार्य अनेक भावनाओंसे करता है। आपने जो सवाल उठाया है उसकी तो जरूरत ही नहीं थी। असली बात यह थी कि आपको कातना जरूर था । आपका पाँच तोला सूत कातकर चरखेको फेंक देना उचित नहीं है; यह तो पतनका चिह्न है । चरखा तो सतत चलता ही रहना चाहिए। आपकी भावनापर ही इसका अस्तित्व और नाश निर्भर है ।

महाविद्यालय के विद्यार्थियोंको वे कुछ बातें समझ ही लेना चाहिए जिनपर विद्यालयकी नींव रखी गई है। उनके बिना राष्ट्रीय विद्यालय राष्ट्रीय नहीं रह सकता ।

  1. १. सूतर आवे तेम तू रहे। जेम तेम करीने हरीने लहे ।