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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हो और आप मेरे प्रति प्रेम या मोहके वश होकर सूत कातें तो यह उचित हो सकता है; परन्तु केवल मुझे सन्तोष देनेके लिए आपका सूत कातना बिलकुल अलग बात है । यदि चरखेपर आपकी श्रद्धा हो और फिर भी आप सूत न कातते हों और यदि मैं आकर आपकी काहिली दूर करूँ और आप मेरी खातिर काहिली छोड़ दें तो यह ठीक है । पर जिस बातपर आपको तनिक भी श्रद्धा न हो उसे आप केवल मुझे सन्तोष देनेके लिए करें तो यह बहुत बुरी बात है । यह पाखण्ड है, छल है, कपट है । जिस अध्यापकने यह बात कहीं कि उन्हें देशके लिए चरखा कातना चाहिए, उसने यह सच्चे अर्थ में ही कही होगी ।

हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई और यहूदी, ये सब हमारे भाई हैं। यदि आपको ऐसी श्रद्धा न हो और आप तदनुसार चलने के लिए तैयार न हों तो आप खुशीसे महाविद्यालयको छोड़ दें। आप अपने रास्ते जायें; महाविद्यालय अपने कार्यकी रूप-रेखा खुद ही निश्चित कर लेगा ।

यह बात कहते हुए मुझे महाविद्यालयकी इमारतकी याद आ गई। उसमें कितने ही अन्त्यज मजदूर काम करते हैं और उन्हें पानीकी तकलीफ रहती है। यदि आपमें सामर्थ्य हो तो आप खुद अन्त्यजोंके साथ काममें लग जायें, यदि इसपर दूसरे मजदूर काम छोड़कर जाना चाहें तो उन्हें जाने दिया जाये । परन्तु मैं देखता हूँ कि आपके पास ऐसा शरीर नहीं, और श्रमके प्रति ऐसा प्रेम नहीं । आप ऐसे अवसरपर अन्त्यजोंको और दूसरोंको अलग-अलग पानी लाकर दें । आप मुझे कह सकते हैं कि आप ऐसा परिश्रम करनेसे थक जायेंगे और फिर आपके पास पढ़ने का समय भी कैसे बचेगा। मैं कहता हूँ कि आप कृपलानीजी से कहकर उसकी दूसरी व्यवस्था भी कर सकते हैं। आप ऊँची जातियों के मजदूरोंसे कह सकते हैं कि वे अन्त्यजोंको पानी खींच-खींचकर पिलायें । आप उन्हें समझा सकते हैं कि यदि उनको अपनेसे हीन वर्णोंके लोगोंपर दया नहीं आयेगी तो आप स्वयं उनको पानी देंगे। इस प्रकार आप उनको दया और सत्याग्रह-का पदार्थ पाठ पढ़ा सकते हैं । आप कमसे कम इतना अवश्य करें कि स्वयं अन्त्यजोंको नहला-धुलाकर और खिलाकर ही खायें। हम चाहें जंगलमें टूटे-फूटे मकानोंमें रह लेंगे, परन्तु अन्त्यजोंको नहीं छोड़ेंगे। ऐसा करनेसे उनके मनसे ऊँचे वर्गोंका भय जाता रहेगा। आपको यह शिक्षा अध्यापकगण नहीं दे सकते और यह पुस्तकोंसे भी नहीं मिल सकती । अध्यापक अपने आचरण द्वारा ही यह पदार्थ पाठ पढ़ा सकेंगे। मैंने विद्यापीठकी स्थापना के समय[१] ही कहा था कि यदि केवल अक्षर-ज्ञानके ही लिए यह संस्था खड़ी की जा रही हो तो मैं कुलपति होनेके योग्य नहीं हूँ । चरित्रबलको बढ़ाने की शर्तपर ही विद्यापीठ आदि संस्थाओंकी नींव डाली गई है। इस बातकी याद दिलाना मेरा कर्त्तव्य है और आप इस अनिवार्य कर्त्तव्यको स्वीकार करें और उसे खूबी के साथ निबाहें ।

यदि आपके चरखे धूप और बारिशमें पड़े सड़ते रहें तो समझिए कि आप पाप कर रहे हैं। विज्ञानकी प्रयोगशालामें जैसे आप अपने औजार साफ-सुथरे रखते

  1. १. सन् १९२० में ।