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२८९. पत्र : बदरुल हुसैनको

साबरमती
९ अगस्त, १९२४

प्रिय बदरूल,

मुझे बहुत दुःख हुआ, जब श्रीमती नायडूसे मालूम हुआ कि तुम्हारा यह खयाल है कि यद्यपि तुम और भी बहुत-कुछ कर सकते हो, फिर भी मैंने तुमसे सब छोड़कर किसी गाँव में रहकर वहीं काम करते रहने को कहा है। मुझे तो अपने ऐसे कहने की याद नहीं आती। इतना कहनेकी याद जरूर पड़ती है कि अगर तुम बाहरी सहायता के बिना बड़े पैमानेपर कोई काम नहीं कर सकते तो तुम्हें गाँवों में जाकर वहीं काम शुरू कर देना चाहिए। किसी चीजकी खपतकी जब आसपास के इलाके में ही गुंजाइश न हो तो उसका बड़े पैमानेपर उत्पादन करना गलत है । लेकिन अगर तुमको अपने ऊपर भरोसा हो और तुम पूरे हैदराबाद में इसे संगठित कर सकते हो तो मेरे लिए इससे ज्यादा खुशीकी बात और क्या होगी ? आत्मनिर्भर रहनेका ध्यान जरूर रखना होगा। मैं तुम्हें अपनी सामर्थ्य-भर सुन्दरसे-सुन्दर खद्दर तैयार करने तथा उसे अपने तईं अधिकसे-अधिक "कलात्मक" बनानेसे भी नहीं रोकना चाहता । मेरी बातसे अगर तुम्हें ऐसा लगा हो कि तुम्हारे सुन्दरसे सुन्दर खद्दर तैयार कर सकनेकी क्षमताको जानकर भी मैंने तुमसे मोटा खद्दर ही तैयार करने को कहा था तो बेशक तुमसे बातचीत करते समय मेरे मनमें कोई खब्त ही रहा होगा; और फिर मैं किसीसे ऐसा कोई काम करनेको तो कह ही नहीं सकता, जो उसे पसन्द न हो ।

बात साफ न हुई हो तो लिखना । पद्मजाको[१] भी यह पत्र दिखा देना ताकि वह भी मेरे विचारोंसे अवगत हो जाये ।

तुम्हारा
बापू

श्री बदरुल हुसैन
आबिद मंजिल
हैदराबाद (दक्षिण)
[ अंग्रेजीसे ]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
सौजन्य : नारायण देसाई
  1. १. सरोजिनी नायडूकी पुत्री ।