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माला या चरखा ?

आकृति रेखा-गणितकी आकृतिकी तरह नपी-नपाई नहीं होती और हम जानते हैं। कि इसके बावजूद भी उसके बीज, टहनियाँ या पत्ते एक ही हैं। रेखा गणितकी आकृति जैसी संगति उसमें नहीं है, फिर भी वृक्षकी शोभासे रेखा गणितकी आकृति-की कोई तुलना नहीं की जा सकती । धर्म जिस प्रकार सीधी लकीर नहीं उसी प्रकार टेढ़ी लकीर भी नहीं है। वह सीधी लकीरके परे है, क्योंकि वह बुद्धिके परे है और अनुभवसे जाना जाता है ।

उक्त लेखकको जिस बात में असंगति दिखाई देती है उसमें मुझे तो सुसंगति ही दिखाई देती है । मुझे अपने जीवनमें न विरोध दिखाई देता है और न विक्षिप्ति । हाँ, यह बात सच है कि मनुष्य जिस प्रकार अपनी रीढ़को नहीं देख सकता उसी तरह मैं अपने दोषको और अपनी विक्षिप्तिको भी नहीं देख सकता । परन्तु ज्ञानियोंने धर्मनिष्ठकी तुलना विक्षिप्त व्यक्तिसे की है। इसीलिए मैं सन्तोष किये बैठा हूँ कि मैं विक्षिप्त नहीं हूँ, बल्कि सचमुच धर्माचारी ही हूँ । परन्तु इसका निर्णय तो मेरी मृत्युके बाद ही हो सकेगा ।

मैं नहीं मानता कि यादवजी महाराजने भीरुतावश मेरा विरोध नहीं किया है; क्योंकि वे मेरे कथनका अर्थ अच्छी तरह समझ गये थे और उस समय मेरी बातसे सहमत हो गये थे । होते भी क्यों नहीं? मैंने नारायणका नाम छोड़कर चरखा चलानेकी बात नहीं कही थी। मैंने यह कहा था कि चरखा कातते हुए भी नारायणका नाम जपा जा सकता है और आज जब सारे देशमें आग लग रही है तब तो चरखे-रूपी डोलमें सूत रूपी जल भरकर नारायणका नाम जपते हुए इस आगको बुझाना ही हम सबका धर्म है ।

मुझे सर्वत्र चरखा ही चरखा दिखाई देता है; क्योंकि मुझे सर्वत्र निर्धनता दिखाई देती है । हिन्दुस्तानके अस्थिपंजर मात्र लोगोंको जबतक अन्न-वस्त्र नहीं मिलता तबतक उनके लिए धर्म नामकी कोई चीज ही दुनियामें नहीं है। वे आज पशुवत् जीवन बिता रहे हैं और इसमें हमारा भी हाथ है। इसलिए चरखा हमारे लिए प्रायश्चित्तरूप है। अपंगोंकी सेवा करना धर्म है । भगवान् हमें अपंगोंके रूपमें हमेशा दर्शन देते हैं; और हम नित्य तिलक छापा लगाते हुए भी उनकी और ईश्वरकी अवहेलना करते हैं। ईश्वर वेदोंमें है भी और नहीं भी है। जो वेदोंका सीधा अर्थ करता है उसे उनमें ईश्वरकी ज्योति दिखाई देती है और जो उनके शब्दोंसे चिपका रहता है उसे हम 'वेदिया' [ पोथी-पण्डित ] कहते हैं। हाँ, नरसिंह मेहताने मालाकी स्तुति बेशक की है; परन्तु वहाँ वह उचित भी थी । उन्हीं मेहता शिरोमणिने यह भी कहा है :

शुं थयुं तिलकने तुळसी धार्या थकी, शुं थयुं माळ ग्रही नाम लोधे ? शुं थयुं वेद व्याकरण वाणी वद्ये, शुं थयुं वरणना भेद जाण्ये ?[१]

  1. १. तिलक और तुलसी धारण करनेसे क्या हुआ ? माला हाथमें लेकर नारायणका नाम जपनेसे भी क्या हुआ ? वेद, व्याकरण और साहित्यका पण्डित होनेसे भी क्या हुआ और वर्णभेद जाननेसे भी क्या हुआ ? अर्थात् यदि आत्मतत्वको नहीं पहिचाना तो ये सब निरर्थक हैं ।