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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अवश्य ही मुसलमान 'तसबीह' फेरते हैं और ईसाई 'रोजरी' । परन्तु यदि किसीको साँप काट खाये और वे 'तसबीह' या 'रोजरी' छोड़कर उसे मदद देने न जायें तो वे अपनेको धर्मभ्रष्ट मानेंगे। ब्राह्मण वेदोंको पढ़कर ही धर्मगुरु नहीं हो जाते । यदि ऐसा होता तो वेदोंके ज्ञाता मैक्समूलर भी हमारे धर्मगुरु हो जाते । वर्तमान युग-धर्मको जाननेवाला ब्राह्मण वेदाध्ययनको गौण मानकर अवश्य ही चरखा-धर्मका प्रचार करेगा और करोड़ों क्षुधा पीड़ितोंकी भूख मिटानेके बाद ही स्वाध्यायमें रत होगा ।

मैंने चरखा चलाना साम्प्रदायिक धर्मोसे श्रेष्ठ माना है । इसका अर्थ यह नहीं है कि सम्प्रदाय छोड़ दिये जायें । परन्तु जिस धर्मका पालन हर सम्प्रदाय और धर्मके अनुयायियों के लिए लाजिमी है वह तमाम सम्प्रदायों और धर्मोसे अवश्य श्रेष्ठ होगा; इसलिए मैं कहता हूँ कि जो ब्राह्मण सेवा भावसे चरखा चलाता है वह अधिक अच्छा ब्राह्मण, वह मुसलमान, अधिक अच्छा मुसलमान और वह वैष्णव, अधिक अच्छा वैष्णव बनता है ।

मैंने अपना अन्त समय पास आया जानकर राम-नाम नहीं जपा अथवा माला नहीं फेरी; लेकिन मुझमें उस समय चरखा चलानेकी शक्ति नहीं थी । जब माला मुझे राम-नाम जपने में मदद करती है तब मैं माला फेरता हूँ; किन्तु जब मैं इतना एकाग्र हो जाता हूँ कि मुझे माला विघ्नरूप मालूम होती है तब मैं उसे छोड़ देता हूँ । यदि मैं सोते-सोते चरखा चला सकूं और मुझे राम-नाम लेने में उसकी सहायताकी जरूरत मालूम हो तो मैं अवश्य मालाके बजाय चरखा ही चलाऊँ । यदि मुझमें माला और चरखा दोनोंको फेरनेका सामर्थ्य हो और मुझे दोनोंमें से किसी एकको चुनना हो तो जबतक देश गरीबी और फाकाकशीसे पीड़ित है तबतक मैं चरखारूपी माला फेरना ही पसन्द करूँगा । मैं ऐसे समयकी प्रतीक्षामें हूँ जब मुझे राम-नामका जप करना भी उपाधि रूप मालूम होने लगे । जब यह अनुभव होगा कि राम' वाणीसे भी परे है तब 'नाम' लेने की जरूरत ही न रह जायेगी । चरखा, माला और रामनाम ये मेरे लिए जुदी-जुदी चीजें नहीं हैं। मुझे तो ये तीनों ही सेवा-धर्मकी शिक्षा देते हैं । मैं सेवा-धर्मका पालन किये बिना अहिंसा धर्मका पालन नहीं कर सकता और मैं अहिंसा धर्मका पालन किये बिना सत्यकी खोज नहीं कर सकता । सत्यके सिवा धर्म नहीं । सत्य ही राम है, नारायण है, ईश्वर है, खुदा है, अल्लाह है, गॉड है ।

"घाट घडिया पछी नाम-रूप जूजवां, अन्ते तो हेमनुं हेम होये ।"[१]

'हिन्द स्वराज्य'[२] में यन्त्रोंके सम्बन्धमें मैंने जो कुछ लिखा है वह यथार्थ ही है । अखबारोंकी बात भी उसमें आ जाती है । जिन्हें इस विषयमें शंका है, वे उसे देख लें । फिर उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि मैं आज तो 'हिन्द स्वराज्य' को देशके सामने नहीं रख रहा हूँ, बल्कि संसदीय अर्थात् बहुमतीय स्वराज्यको रख रहा हूँ । अभी मैंने हर तरहके यन्त्रोंके विनाशका प्रस्ताव पेश नहीं किया है; बल्कि आज तो

  1. १. सोनेके गहने गढ़नेपर उनके नाम अलग-अलग होते हैं; किन्तु अन्तमें तो सोनेका-सोना ही रहता है।
  2. २. देखिये खण्ड १० ।