का मार्ग अपना सकता है। विचारणीय बात यह नहीं है कि वह आक्रमणकारी अंग्रेज या शराबका ठेकेदार एक है या अनेक, सबल है या निर्बल ।
इस पत्रका जवाब मैंने दिया तो है, परन्तु उसके औचित्यके विषयमें में असन्दिग्ध नहीं हूँ। मैंने यह जवाब लेखकके हेतुको निर्मल समझकर दिया है। परन्तु मुझे लगता है कि ऐसे प्रश्नोंमें पर्याप्त विचार-दोष रहा करता है। यह बात मेरे जवाबसे जानी जा सकती है।
कितने ही पढ़े-लिखे लोगोंका जीवन विचार-शून्य हो गया दिखाई देता है। जबतक मनुष्यमें किसी सिद्धान्तसे उपसिद्धान्त निकाल लेनेकी शक्ति न हो, हम कह सकते हैं कि उसको सिद्धान्तोंकी कोई पकड़ नहीं है। यदि पत्र लेखकने गहरा विचार किया होता तो वह खुद उन्हीं निष्कर्षोपर पहुँच जाते जो मैंने जवाबमें लिखे हैं। सच पूछें तो इन तमाम बातोंके जवाब मेरे पहलेके लेखोंमें आ चुके हैं परन्तु लेखककी जैसी विचार-शिथिलता, हमारे यहाँ एक सर्व-सामान्य बात है । मेरे नाम जो अनेक चिट्ठियाँ आती हैं उनमें भी मैं यही बात देखता हूँ । इसीलिए मैंने जवाब तो दिया है; परन्तु पाठकों और लेखकोंको मेरी सलाह है कि वे प्रत्येक बातपर स्वयं मनन करनेका स्वभाव बनायें । इस प्रकार वे अनेक मिथ्याभासोंसे बच जायेंगे । “विचारके बिना शिक्षा व्यर्थ है।"
नवजीवन, (अतिरिक्त अंक) ७-८-१९२४
२९८. दानियोंसे प्रार्थना
गुजराती 'नवजीवन' में मैंने मलाबारके प्रलयके[१] विषयमें लिखा है । वह तो सब पाठक पढ़ेंगे ही। परन्तु मैं जानता हूँ कि 'हिन्दी नवजीवन' के पढ़नेवालोंमें कई दानवीर भी हैं। उनसे मेरी प्रार्थना है कि वे जितना धन दे सकें उतना भेज दें।
२९९. पत्र : ए० डब्ल्यू० बेकरको
साबरमती
१० अगस्त, १९२४
आपके दो पत्र मिले। पहलेकी प्राप्ति सूचित कर चुका हूँ । पुस्तक भी मिल गई है । बराबर लिखते रहनेकी कृपा करें । मुझको लगता है कि मुझे अपने रास्ते ही