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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

१. अदालतोंका बहिष्कार किया जाये और ग्राम, कस्बा, नगर पंचायतोंकी स्थापना की जाये और हर जगह दस्तावेजोंको रजिस्टर करनेके दफ्तर रहें,
२. सिक्के चलनका बहिष्कार करके हुंडीका चलन किया जाये,
३. शराब तथा नशीली चीजोंके व्यवहारको रोका जाये ।

मैं इस बातको नहीं मानता कि हमने जनता के अन्दर अभी इतना काम कर लिया है कि जिससे हम जान सकें कि ये तीन चीजें उन्हें जँचती हैं या नहीं । हमने जनताका अर्थात् देहातका जो-कुछ अनुभव प्राप्त किया है, उससे तो यही मालूम होता है कि लोग चरखेकी उपयोगिता स्वीकार कर चुके हैं। गाँवों में सिर्फ उसे संगठित करने की जरूरत है। लेकिन हम लोग, जो कि उनके नेता होनेका दम भरते हैं, गाँवों में जाकर उनके बीच रहने और चरखेके जीवनदायी सन्देशको उन्हें सुनानेसे इनकार करते हैं । लेखकका तो जनतासे परिचय है ही नहीं । वरना उन्हें मालूम होता कि हिन्दू-मुस्लिम जनता आपस में नहीं लड़ रही है । देहली कोई गाँव नहीं है और यह कहना कि वहाँ भी गरीब लोग लड़े. उनकी बदनामी करना होगा। हमने ही भाई-भाईको आपस में लड़ने के लिए भड़काया । अलबत्ता अछूतोंका सवाल जनता के लिए मुश्किल है । जनता के मनको यह सवाल आन्दोलित तो करता है; पर ऐसे रूपमें जिसे हम पसन्द नहीं करते । ऊँचे होने का जो अहसास उन्हें सदियोंसे विरासतमें मिला है, वे उसे एकाएक छोड़ना नहीं चाहते । लेकिन यदि हम अपनी स्वच्छता, निस्वार्थ भाव और धैर्य के बलसे जनताको इस रोगसे मुक्त नहीं कर सकते तो राष्ट्रके रूपमें हमारा अवसान निश्चित ही समझिए। इस बातको हर राजनैतिक सुधारक जितनी ही जल्दी महसूस करेगा उतनी ही जल्दी उसके और देश के लिए हितकर होगा । हमारे लिए इस लड़ाईको (अछूतोद्धारके प्रयत्नको) स्वराज्य प्राप्त होने तक बन्द रखना सम्भव ही नहीं है । इसे मुल्तवी रखना तो ऐसा ही है जैसे बिना फेफड़ेके जीवित रहने की इच्छा रखना । जो लोग यह मानते हैं कि हिन्दु-मुस्लिम तनाजा और छुआछूत स्वराज्य प्राप्त होने के बाद दूर किये जा सकेंगे, वे मानों स्वप्न के संसारमें विचरते हैं। उनके मन इतने थक गये हैं कि अपने प्रस्तावका अर्थ समझनेकी शक्ति उनमें नहीं रह गई है । स्वराज्य-प्राप्ति के किसी भी कार्यक्रममें ये तीन अंग अवश्य होने चाहिए। हाँ, यह काम मुश्किल है; पर असम्भव नहीं है । इसलिए यह बात दावे के साथ कहता हूँ कि यह रचनात्मक त्रिविध कार्यक्रम भारतकी मानव प्रकृति- के बिलकुल अनुकूल है। वह उन लोगोंकी दैनिक आवश्यकताओंके बिलकुल अनुकूल हैं जो अपनी प्रगति करने के लिए तत्पर हैं ।

पर ये मित्र तो कहते हैं कि 'जोश' के बिना काम नहीं चल सकता । पता नहीं 'जोश' किसे कहते हैं। क्योंकि काम करनेवालोंके लिए तो इन तीन कामों- में काफी जोशका मसाला मौजूद है। आप किसी भी गाँवमें चले जाइए, एक चरखा लेकर बैठ जाइए और गाँववालोंसे कहिए कि वे अपने अछूत-भाइयोंको गले लगायें । गाँवके बच्चे तो चरखे के आसपास, जिसे वे बरसोंसे भूल गये थे, नाचने ही लगेंगे और गाँववाले यदि आप उन्हें अछूतोंको गले लगाने की बात अच्छे और मीठे ढंगसे