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इससे पत्थर भी पिघल जाये

किन्तु सभा के अध्यक्ष महोदय अपने पत्र में लिखते हैं : "लगता है, आपका खयाल यह है कि जब भाई, भाईके विरुद्ध सत्याग्रह करे तो जिसके विरुद्ध सत्याग्रह किया जाता है, उसका विरोध धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है और वह सत्याग्रही भाईकी बात मान लेता है। लेकिन यहाँ तो हमें वैसा कुछ नहीं दीख पड़ रहा है ।" सत्याग्रहियोंके कष्ट सहनने अभीतक कट्टरपन्थियोंके हृदयों को प्रभावित नहीं किया है, मुझे इसपर अचरज नहीं होता । अभी कष्ट सहनकी उनकी अवधि और तीव्रता पर्याप्त नहीं हुई । कष्ट भी हम स्वयं तो पैदा नहीं कर सकते । ईश्वरने उनके भाग्यमें जो कुछ लिख रखा है, उसे तो स्वीकार ही करना पड़ेगा । यदि उसकी यही इच्छा हो कि वे दीर्घ कालतक दुःख उठाते रहें, तो उसकी इस इच्छाको उन्हें शिरोधार्य करना चाहिए । उन्हें कठिन से कठिन परीक्षासे भी जी नहीं चुराना चाहिए; और न वे कृत्रिम रूपसे कष्टका आह्वान ही कर सकते हैं। मैंने जो सिख भाइयोंको गिरफ्तारीका विरोध करके गोलीबारीकी स्थिति उत्पन्न करनेसे रोका था;[१] उसका एक कारण यही था । कष्ट सहनके बारेमें मेरा अनुभव तो बराबर एक-सा ही रहा है; और वह यह कि उससे कठोर से कठोर हृदय भी पिघल जाता है। खुद अपने सबसे बड़े भाईको सहमत करने में मुझे पूरे तेरह वर्ष लगे।[२] मैं अंग्रेज मित्रोंसे प्राप्त सभी पत्र प्रकाशित नहीं करता। लेकिन कुछ पत्रोंमें उन्होंने विनम्रताके साथ स्वीकार किया है कि अंग्रेज शासकोंने (यह सच है कि अनजाने ही) भारतका बड़ा अहित किया है। यदि ये अभिस्वीकृतियाँ सत्याग्रही के कष्ट सहनसे द्रवित होकर ज्ञानपूर्वक किया गया मत-परिवर्तन नहीं तो और क्या हैं? मुझे इस विश्वाससे कोई बात डिगा नहीं सकती कि यदि उद्देश्य अच्छा हो तो उसकी पूर्ति में कष्ट सहन जितना सहायक होता है, उतनी सहायक आजतक और कोई चीज नहीं हुई है । कट्टरपन्थी हिन्दुओंको तपस्याकी अमोघ शक्ति बताने की जरूरत में नहीं देखता; और सत्याग्रह सत्य के लिए की गई तपस्या ही तो है ।

एक चिन्ताजनक बात

लेकिन अध्यक्ष के पत्र में एक चिन्ताजनक बात भी है। उसे उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत करना चाहिए :

में आपका ध्यान ६ जुलाई, १९२४ की एक घटनाकी ओर दिलाता हूँ । यह घटना चेंगनूर में घटी और इसके निमित्त वे लोग बने जो कांग्रेस पार्टीके समर्थक हैं। वहाँ सवर्ण हिन्दुओंकी एक सभाके आयोजनकी घोषणा की गई। सभामें हमारी कमेटोको भी एक प्रतिनिधि भेजने के लिए आमन्त्रित किया गया था । कुछ शरारती लोगोंकी चालबाजीसे सभाका रंग ही बदल गया । उसमें ऐसे

  1. १. देखिए खण्ड २३ “खुली चिट्ठो : अकालियोंके नाम ", २५-२-१९२४ ।
  2. २. लक्ष्मीदास गांधीके नाराज रहनेके कारणोंके लिए देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ३४४-५ और खण्ड ६, पृष्ठ ४४४-४८ ।