पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/६२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

परिशिष्ट

परिशिष्ट १

डा० भगवानदासका पत्र

सम्पादक
'यंग इण्डिया'
महोदय,

आपने १७-४-१९२४ के 'यंग इंडिया' में "अध्यापक और वकील" शीर्षक से जो लेख लिखा है । उसमें १३० पृष्ठपर निम्नलिखित वाक्य आये हैं :

पर यदि हम जनता के लिए स्वराज्य स्थापित करना चाहते हों-- एक दलके बदले किसी दूसरे दलका जो शायद उससे भी अधिक बुरा निकले, राज्य स्थापित करना नहीं चाहते तो -- इस कठिनाईका मुकाबला हमें केवल साहसके साथ ही नहीं, जानको हथेलीपर रखकर करना होगा । दूसरा वाक्य है :

यदि हमें स्वराज्यमें नगर जीवनको ग्रामजीवनके अनुरूप बनाना हो तो नगर जीवनका रंगढंग बदलना ही होगा ।

मैं बड़ी संजीदगी के साथ आपका और 'यंग इंडिया' के सभी पाठकोंका ध्यान इन दो शर्तोंसे निकलनेवाले नतीजोंपर और पूरे असहयोग आन्दोलन तथा स्वराज्य संघर्ष-पर पड़नेवाले इनके अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण प्रभावकी ओर आकर्षित करना चाहता हूँ । स्वराज्यके लिए विभिन्न दल अपने विभिन्न तरीकोंसे संघर्ष कर रहे हैं। इन दलोंने कांग्रेस के नये सिद्धान्त, जिसमें 'स्वराज्य' शब्दका प्रयोग किया गया है, को स्वीकार कर लिया है। लेकिन इस नये सिद्धान्त में 'स्वराज्य' शब्दकी कोई निश्चित, सुस्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है, न यही बतलाया गया है कि स्वराज्य किस प्रकारका होगा ।

हममें से कुछ लोगों का पक्का विश्वास है कि असहयोग आन्दोलनकी प्रगति में बाधक और उसे प्रभावहीन बनानेवाली सभी त्रुटियोंमें से अनेक त्रुटियोंकी जड़ यही अनिश्चित और अस्पष्ट शर्तें हैं। जबतक ये शर्तें अस्पष्ट रहेंगी तबतक किन्हीं भी दो वर्गों, किन्हीं भी दो सिद्धान्तों, किन्हीं भी दो जातियोंके बीच परस्पर विश्वास पैदा हो ही नहीं सकेगा; बल्कि कहा तो यह भी जा सकता है कि तबतक स्वराज्य चाहनेवाले, उसके स्वरूपके बारेमें भले ही भिन्न-भिन्न मत रखनेवाले, किन्हीं दो कार्य-कर्त्ताओं में भी परस्पर कोई विश्वास पैदा नहीं हो सकेगा ।

कारण यह है कि किसी शब्दका सही और पूरा-पूरा अर्थ समझे बिना उस एक शब्दके आधारपर हासिल की गई एकता बड़ी ही अवास्तविक किस्मकी एकता