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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है । इसीलिए वह लगातार टूटती चली जा रही है। वह राजनीतिक बहसमुबाहिसों-में भाषा और विचारगत उग्रताका और हिन्दू-मुस्लिम दंगोंके दौरान हिंसात्मक कार्यों का रूप धारण कर लेती है । और इसीलिए आन्दोलन अनेक दिशाओंमें असफल होता जा रहा है। ऐसी एकतासे न तो अविचल निष्ठा पैदा हो रही है, न अनुशासन सध रहा है, न संगठन मजबूत हो रहा है और न रचनात्मक या ध्वंसकारी किसी भी प्रकारके किसी व्यवस्थित कार्यको ही बल मिल रहा है ।

उद्धृत किये गये पहले वाक्यके तुरन्त बाद, आप कहते हैं : "आजतक हजारों ग्रामीण हमें जीवित रखनेके लिए मरे-खपे हैं; अब शायद उन्हें जीवित रखनेके लिए हमें मरना पड़े।” लेकिन स्वराज्य जिस 'जनता' के लिए स्थापित किया जाना है, उसमें " हम लोग " (शहरी लोग) भी तो शामिल हैं। क्या हम लोग शामिल नहीं हैं ? और शहरी लोगोंका एक बड़ा भाग उतना ही निर्धन है जितने कि गाँवोंके लोग । क्या ऐसा नहीं है ?

शहरी लोगोंको कुछ ऐसा लगता रहा है कि असहयोग आन्दोलनसे मिलनेवाले स्वराज्यका अर्थ कोई नहीं जानता, पर वह शायद शहरों को मिटा देगा (उसके विरुद्ध उठाये जानेवाले. 'बोल्शेविज्म' के नारोंको देखिए), इसलिए स्वाभाविक ही है कि इससे उनके हृदयोंमें स्वराज्य के प्रति कोई उत्साह पैदा नहीं होता । तिलक स्वराज्य-कोषके लिए अधिकांश चन्दा शहरोंसे ही आया है; बम्बई इसमें सबसे आगे रहा है । चन्दा ऐसे लोगोंने दिया है जिनके धन्धे और जीविकाके साधनोंको असहयोग आन्दोलनका रचनात्मक और विध्वंसकारी कार्यक्रम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे क्षीण ही बनायेगा, उनकी जड़ें हिला देगा । फिर भी शहरी लोगोंकी ओरसे इतना चन्दा मिलनेका अंशतः एक कारण तो यह है कि सभी वर्गोंके भारतीय आपके व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धालु हैं और उसका दूसरा आंशिक कारण है उनकी यह आशा कि आखिरकार वह मनोवांछित स्वराज्य शहरोंके खिलाफ कोई जिहाद नहीं बोल देगा, वह शहरोंकी बुराइयोंको ही दूर करनेकी कोशिश करेगा ।

शहरोंके लोपका अर्थ होगा लक्ष्मी और सरस्वतीका लोप । और तब खलि-हानोंमें क्रीड़ा करती गौरी अन्नपूर्णा मानवीय जीवनको कलात्मक अभिरुचि, विज्ञानपरक बुद्धिसे सम्पन्न और इसीलिए विविधतापूर्ण बनानेमें असफल रहेगी, फिर चाहे हमारे खलिहान कितने ही धान्य पूरित क्यों न हों। आवश्यकता इस बातकी है कि सभी कालोंमें सभी देशों और धर्मोके मानवों द्वारा सर्वपूजित इन तीनों देवी शक्तियोंको सन्तुलित अनुपात दिया जाये । और इनमें से किसी एकका भी त्याग न किया जाये । रामराज्यमें यद्यपि लंका आंशिक रूपसे तहस-नहस हो गई थी तथापि अयोध्या फली-फूली थी ।

बादके एक अनुच्छेदमें आपका यह वाक्य पढ़कर हमारे मनको बड़ी शान्ति मिली कि "नगर-जीवनका रंगढंग बदलना ही होगा" । इससे पहलेके वाक्योंने मनमें जो आशंकाएँ पैदा कर दी थीं वे इससे कुछ शान्त हो जायेंगी, हालांकि लोग पूरी तौरपर आश्वस्त तो नहीं होंगे ।