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सलाह भी दी थी। एक पत्र-लेखकको इन दोनोंके बीच असंगति दिखाई देती है और उसने मेरा ध्यान इसी असंगतिकी ओर आकर्षित किया है। जेलसे छूटनेपर मैंने यह वक्तव्य[१] दिया था:

मेरे (अकाली) भाइयोंने मुझे सूचित किया कि पंजाबमें आमतौरपर ऐसी गलतफहमी फैली हुई है कि ननकाना साहबको दुःखद घटनाके बाद मैंने ऐसा विचार प्रकट किया कि स्वराज्य-प्राप्ति तक गुरुद्वारा आन्दोलन स्थगित रखना चाहिए। मुझपर जो विचार प्रकट करने का आरोप लगाया गया है, वैसा कोई भी विचार मैंने कभी प्रकट नहीं किया। यह बात मेरे उन दिनोंके लेखों और भाषणोंसे स्पष्ट हो जायेगी।

पत्र-लेखकने उस दुःखद घटनाके बाद सिखोके नाम लिखे मेरे पत्रसे निम्नलिखित अवतरण उद्धृत किया है और ऐसा माना है कि यह मेरे पहले वक्तव्यसे असंगत है:

अपने मन्दिरोंमें सच्चे सुधारके लिए तथा उनमें से सारी बुराइयोंको दूर करनेके लिए मुझसे अधिक उत्सुक कोई दूसरा नहीं हो सकता। किन्तु हमें ऐसी कार्रवाइयोंमें साथ नहीं देना चाहिए, जो उनसे भी बदतर साबित हों, जिन बातोंमें हम सुधार करना चाहते है। आप लोगोंके सामने दो ही मार्ग हैं: या तो आप सभी गुरुद्वारों अथवा जिन मन्दिरोंके गुरुद्वारा होनेका दावा किया जाता है उन मन्दिरोंपर कब्जे के सवालके निपटारेके लिए पंच-निर्णय समितियोंकी स्थापनाकी बात मान लें या फिर इस प्रश्नको स्वराज्य प्राप्त हो जाने तक स्थगित रखा जाये।[२]

जो शब्द रेखांकित हैं, उन्हें पत्र-लेखकने ही अपने पत्रमें रेखांकित कर रखा है। मुझे तो दोनों वक्तव्योंमें कोई भी असंगति नहीं दिखाई देती। पहले वक्तव्यका सम्बन्ध आम आन्दोलनसे है और उससे स्पष्ट है कि मैंने स्वराज्य प्राप्ति तक उसे स्थगित रखनेकी बात कभी नहीं की। दूसरेमें यह सलाह दी गई है कि अगर गुरुद्वारापर कब्जा करनेके सवालका निबटारा पंच-फैसलेसे न हो सके तो उसे स्वराज्य प्राप्ति तक स्थगित रखा जाये। इस पत्रमें मैने शक्ति-प्रदर्शन द्वारा कब्जा करनेके औचित्य-अनौचित्यपर विचार किया है। उसमें मैंने यह सलाह दी कि अगर

पंच-फैसला सफल नहीं होता और चुनाव सिर्फ उन दो बातोंके बीच करना है कि शक्ति-प्रदर्शन करके कब्जा किया जाये या मामलेको स्थगित रखा जाये, तो मामलेको स्थगित रखना ही ठीक होगा। जिज्ञासु पाठक १९२१ के ‘यंग इंडिया’ की फाइलमें उस पत्रको देख सकते हैं और तब उन्हें मालूम हो जायेगा कि मैंने उसमें शक्तिप्रदर्शनके सवालपर विचार किया है। तबसे ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है जिसके कारण मुझे उस पत्रमें अपनाया गया रुख बदल देना पड़े। मेरा यह निश्चित मत

 
  1. देखिए खण्ड २३, पृष्ठ २५०।
  2. देखिए खण्ड १९, पृष्ठ ४०४-०८।