पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 24.pdf/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अन्तमें वह घड़ी आ ही गई। मेजर जोन्स उबल पड़े। उनका खयाल था कि ये लोग जानबूझकर अपना काम नहीं करते। उन्होंने कैदियोंको एक सबक देना तय किया और उनमें से छः आदमियोंको कोड़े लगाये जानेका हुक्म दिया। इस सजाकी खबर फैलते ही सारी जेलमें खलबली मच गई। सभी जानते थे कि जेलमें क्या हो रहा है और किस कारण हो रहा है। उन कैदियोंको जब मेरे बाड़ेके आगेसे ले जाया जा रहा था, तब मेरी नजर उनपर पड़ी और मुझे बड़ी व्यथा हुई। उनमें से एकने मुझे पहचान लिया और प्रणाम किया। “तनहाई” में जो “राजनीतिक" कैदी थे, उन्होंने इस घटनाके विरोधमें हड़ताल करनेका विचार किया। मैं इससे पहले मेजर जोन्सके गुणोंकी तारीफ कर चुका हूँ। यहाँ मुझे उनके कार्यकी आलोचना करनेका दुःखपूर्ण धर्म-पालन करना पड़ रहा है। मेजर जोन्स मूलतः बहुत अच्छी प्रकृतिके न्यायप्रिय व्यक्ति थे। वे अफसरोंके मुकाबले कैदियोंकी तरफदारी भी करते थे। परन्तु उनके काममें उतावलापन था। इसलिए कभी-कभी वे अपने निर्णयमें भूल कर जाते थे किन्तु इससे कोई बड़ी हानि नहीं होने पाती थी, क्योंकि वे अपनी भूल- को सुधारने के लिए भी तत्पर रहते थे; परन्तु कोड़े मारने-जैसी सजाओंके मामलोंकी, जहाँ छूटा हुआ तीर वापस नहीं आ सकता, बात अलग है। मैंने नरमीसे इस विषयमें उनसे बातचीत की, परन्तु कम काम करनेपर कोड़े की सजा देना अनुचित है, यह बात निश्चय ही उनके गले नहीं उतरी। जब-जब पूरा काम नहीं किया गया है तब-तब इरादातन ही ऐसा किया गया हो सो बात नहीं है――वे इसे भी माननेको राजी नहीं हुए। उन्होंने इतना जरूर स्वीकार किया कि ऐसे मामलोंमें गलतीकी गुंजाइश बराबर रहती है, परन्तु उनके अपने अनुभवके अनुसार इसकी सम्भावना इतनी कम होती है कि वह नगण्य है। दुःखकी बात है कि बहुतेरे अधिकारियोंकी भाँति मेजर जोन्स भी कोड़ेकी सजाकी उपयोगितामें विश्वास रखते थे।

इस घटनाको अत्यन्त गम्भीर मानकर “राजनीतिक" कैदी उसके विरुद्ध उपवास शुरू करने ही जा रहे थे कि मुझे उसका पता चल गया। मैंने सोचा कि जबतक भूख हड़तालके पक्षमें औचित्यका आधार बहुत मजबूत नहीं कर लिया जाता, तबतक उपवास करना गलत है। कैदी कानूनको अपने हाथ में लेकर हर मामलेका निर्णय खुद ही करनेका दावा नहीं कर सकते। इसलिए इन सब भाइयोंसे मिलने देने के लिए मैंने फिर एक बार मेजर जोन्ससे इजाजत माँगी। लेकिन इजाजत नहीं दी गई। इस बारेमें मेरा अधिकारियोंसे जो पत्र-व्यवहार हुआ उसे मैं प्रकाशित कर चुका हूँ। उत्सुक पाठकोंसे मेरी सिफारिश है कि वे यह लेख पढ़ते समय वह पत्र-व्यवहार भी साथ ही पढ़ लें। मुझे फिर उस “बेतारके सन्देश" का आश्रय लेना पड़ा। इस सन्देशका सीधा परिणाम यह हुआ कि भूख-हड़ताल और यह संकट टल गया। परन्तु इसी घटनाके सिलसिले में एक और दुःखद प्रसंग उपस्थित हो गया। मेरा सन्देश भाई जयरामदासने उनतक पहुँचाया था और यह जेल नियमों के विरुद्ध था। भाई जयराम-दासको सम्बन्धित राजनीतिक कैदियोंसे मिलना जरूरी था और तदनुसार वे उनसे

१.देखिए खण्ड २३।