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५१. अविस्मरणीय

गत रविवारको जब मैं एक्सेल्सियर थियेटरमें वक्ताओंके मुँहसे अपनी प्रशस्ति सुन रहा था,[१] उस समय मुझे ऐसा लगा मानो श्री भरूचाने दक्षिणके पीड़ित लोगोंकी के लिए रंगमंचपर एक नाटक प्रस्तुत किया हो। किन्त एक घटनाके कारण यह मेरे लिए नाटक न रहकर एक गम्भीर चीज बन गई। श्री भरूचाने विभिन्न राजनीतिक दलोंसे सम्बद्ध लोगोंको एक मंचपर एकत्र करनेका प्रयत्न किया था। इसलिए उन्होंने वक्ताओंमें श्री जमनादास द्वारकादासको भी शामिल कर लिया था। श्री जमनादासने मुझे "महात्मा" न कहकर गांधीजी कहा। श्रोताओंमें से दो-तीन व्यक्तियोंने, जो मुझे "गांधीजी" कहनेके अपमानको न सह सके, माँग की कि वे मुझे "महात्मा" कहें। श्री जमनादास, बहादुरी किन्तु शिष्टताके साथ मुझे गांधीजी ही कहते रहे, यद्यपि उन्होंने कहा कि मेरे प्रति उनका प्रेम किसी भी श्रोतासे कम नहीं है। उन्होंने आपत्ति करनेवालोंका विरोध करते हुए कहा कि सम्बोधनके उनके इस ढंगको मैं ज्यादा पसन्द करता हूँ। फिर भी रोक-टोक अन्ततक जारी रही। ऐसा होनेपर भी सभाके लिए यह अत्यन्त श्रेयकी बात थी कि श्री जमनादासके खिलाफ उठाई गई आवाजको श्रोताओंने अनसुना कर दिया। श्री जमनादासने बिना किसी कठिनाईके अपना भाषण पूरा किया। किन्तु यह रोक-टोक मुझे बराबर कचोटती रही। मुझे लगा कि जहाँ श्री जमनादासने मेरे कतिपय राजनीतिक विचारोंसे नम्रता, किन्तु दृढ़ताके साथ अपनी असहमति प्रकट करके और किसी अन्यके कहनेपर मुझे "महात्मा" कहनेसे इनकार करके मेरा समुचित आदर किया और मुझे सही रूपसे समझा, वहाँ मेरे उन प्रशंसकोंने अपने आचरणसे अपने इष्ट व्यक्तिका अपमान किया और उसे गलत रूपमें समझा। इसलिए मैंने ऐसी अशिष्टता दिखानेवाले भाइयोंसे सार्वजनिक रूपसे क्षमा-याचना करनेको कहा। मैंने उनका ध्यान इस बातकी ओर आकर्षित किया कि सार्वजनिक सभाओंके नियमानुसार विरोधियोंके साथ भी सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। मैंने कहा कि अहिंसक असहयोगियोंको तो शिष्टताके नियमोंका और भी अधिक आवश्यक रूपसे पालन करना चाहिए। असहयोगियोंके अहिंसा-व्रतका तकाजा है कि वे अपने विरोधियोंका भी उसी प्रकार आदर करें जिस प्रकार अपने मित्रोंका करते हैं। इसके अतिरिक्त श्रोताओंको उन लोगोंकी भावनाओंका आदर करना चाहिए जिनके सम्मानमें वे सभामें एकत्र हुए हों। रोक-टोक करनेवालोंको जानना चाहिए कि मैंने अकसर यह कहा है कि "महात्मा" शब्द मुझे बहुत बुरा लगता है। उदाहरणके लिए, १९२१में हुए बम्बईके दंगोंके समय यह शब्द मुझे बहुत बुरा लगा था। आश्रममें इस विशेषणका प्रयोग करना निषिद्ध है। इसलिए भी जमनादासने वही किया जो मेरे मनको रुचता है। यह सब कहने के बाद मैं क्षमा याचनाके लिए रुक

  1. देखिए "भाषण: एक्सेल्सियर थियेटर, बम्बई में", ३१-८-१९२४।