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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कोई दुर्भावना नहीं है। कुछ अंग्रेज तो मेरे घनिष्ठतम मित्रोंमें से हैं, लेकिन एक समय ऐसा आया जब मुझे उनसे कहना पड़ा, "आप मेरे देशका शोषण नहीं कर सकते। इस शोषणने उसे असीम क्षति पहुँचाई है। आपमें से कुछ लोगोंको तो इसके कल्याणका कोई खयाल नहीं है और वे इसे जहाँतक बने, अधिकसे-अधिक चूसना चाहेंगे। आपमें से कुछ लोग अज्ञानवश ऐसा मानते हैं कि भारतमें अंग्रेजी राज्य तो भारतके कल्याणके लिए ही कायम है और आप लोग इस देशके ट्रस्टी हैं। यह स्थिति समाप्त होनी है और जल्दी ही होनी है।" जब मैंने ऐसा कहा तो उसका यही मतलब था कि मैं इस काममें प्राणपणसे जट जाऊँ। इस प्रयत्नके परिणामस्वरूप सत्याग्रहका उग्र पक्ष सामने आया है। इससे शोषक प्रणालीका अन्त नहीं हो पाया, लेकिन हम आपमें से विभक्त हो गये हैं। इसलिए अब मुझे पूरी शक्ति लगाकर सत्याग्रहके सौम्य पक्षको लोगोंके सामने रखना है। यह चीज आग्रहसे नहीं, सिर्फ समर्पणसे ही सम्भव है। यदि मैं सफल न होऊँ तो मैं जानता हूँ कि इसका कारण इस सिद्धान्तकी कमजोरी नहीं बल्कि इस सिद्धान्तपर आचरण करनेवालेकी कमजोरी ही होगी। इसका मतलब यह होगा कि प्रयोगकर्त्ता जिस सिद्धान्तके बारेमें जानता था कि वह एक सच्चा सिद्धान्त है, उसे वह अपने आचरणमें नहीं उतार पाया है। मैं जानता हूँ कि मैं महात्मा नहीं हूँ; मैं तो अल्पात्मा हूँ। प्रेमकी शक्तिकी कोई सीमा नहीं है। यह तो सबपर विजय प्राप्त कर सकता है। यह कठोरसे-कठोर हृदयको भी पिघला देता है। उसमें 'स्व' के लिए कोई स्थान नहीं है। कौन जानता है कि मेरे भीतर कहीं, किसी कोने में मुझसे भी छिपकर क्रोध या दुर्भावना धातमें नहीं बैठी हुई हो। लेकिन मुझे डिगना नहीं चाहिए। मुझे तो स्वपर विजय प्राप्त करनेका और उस प्रक्रियामें, हम सबके बीच जो दरारें दिखाई दे रही हैं, उन्हें पाटनेका प्रयत्न करना ही है। अन्तमें मैने कहा, "तो अब मेरे लिए यही कामना कीजिए कि ईश्वर मुझे ऐसा करनेके लिए बल दे।"

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ४-९-१९२४