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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कम ७०० लड़कोंको धुनना और कातना सिखाया जाये और खादीकी बुनाईके लिए बुनाई विभागमें ६ खड्डी करघे हों, एक बुनाई-शिक्षक, एक निरीक्षक, एक बढ़ई और इतनी कपास दी जाये, जिससे हर विद्यार्थी आध घंटेतक रोज काम कर सके। इसके लिए ६,००० रू० प्रति वर्ष दरकार थे। पर बोर्ड इसपर पशोपेशमें पड़ गया और अपनी बैठकोंमें दो महीनेतक इस सवालको टालता रहा। आखिर पिछली २६ जुलाईको बोर्डने एक सालके लिए सिर्फ ३,००० रू० मंजूर किये। ऐसी हालतमें मुझे कपासकी मद प्रायः बिलकुल निकाल देनी पड़ी और दूसरी मदोंमें भी इसी तरह काट-छाँट करनी पड़ी, जिससे काम छोटे पैमानेपर मजेमें चल सके। अब मैं सिर्फ ३०० चरखे और ६०० चमरखे साबरमती आश्रमके नमूनेके मँगा रहा हूँ। (आश्रममें मैंने जो-कुछ देखा उसके अनुसार) कुछ थोड़ा सुधार कर देनेसे मैं उम्मीद करता हूँ कि एक हजारसे अधिक लड़के-लड़कियाँ कातना सीख जायेंगे और रोज चरखा कातकर अच्छा सूत निकाल सकेंगे। अब सिर्फ चरखोंके बन जानेका इन्तजार है, और वे तो बनते-बनते ही बनेंगे। पर इस बीच लड़के-लड़कियोंके माँ-बाप और अभिभावकोंसे में प्रार्थना कर रहा हूँ कि वे कपासका इन्तजाम अपने घरसे कर दिया करें। चरखा वगैरह चीजें मैं दूँगा, जरूरी बातें मैं बता दिया करूँगा और माँ-बाप सिर्फ कपासका इन्तजाम करेंगे। सूतके मालिक वे रहेंगे और अगर वे चाहें तो हमें बुनाईका उचित मेहनताना देकर खादी बुनवा लेंगे। मैं सिलाई सिखानेका भी इन्तजाम कर रहा हूँ, जिससे खादीकी सिलाई सस्ती हो जाये।

लोग इस प्रयोगको दिलचस्पी और हमदर्दीके साथ देखेंगे। मुझे आशा करनी चाहिए कि अन्य शिक्षक भी प्रोफेसर रामदास गौड़का अनुकरण करेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ४-९-१९२४